भीतर के शोर में गुम

देवी नागरानी
आज मेरे भीतर कितनी खामोशी है, कितना सन्नाटा है, पहले ऐसा तो नहीं होता था
वह बिछड़ गया, बस गया…कोई सुराग नहीं जहां से उसके लौट आने की खबर मिले. बड़े-बड़े दावे करना आसान है पर पूरा उतरना युग की सबसे बड़ी विडंबना है.
सभी जी लेते हैं, कोई भी किसी के साथ नहीं मरता. बेचैनी और बेसुकूनी से घिरा इंसान जज्बाती हो कर सख्त फैसला नहीं कर सकता. हर चीज का हिसाब किताब होता है, पर यकीनन वह गरीब के हिस्से में कुछ ज्यादा होता है. अमीर गरीब दोनों जिंदा रहते हैं, अपनी-अपनी परीधियों , सुविधाओं और असुविधाओं की मयार में रहते हैं, पर कब्र तक पहुंचते-पहुंचते सब बराबर हो जाते हैं. अंत सभी का एक सा कोई, कोई फर्क नहीं… कोई गरीब नहीं कोई अमीर नहीं… सब बराबर.
गरीब के घर कच्चे होते हैं जहां में रहते हैं, और उनके मौसमों के थपेड़ों से डह भी जाते हैं उनके घर. बावजूद इसके अमीरों के घर मजबूत होते हैं और वे अमीरों की शान शौकत की रिवायतों का पालन करते हुए बरकरार रहते हैं. इन मजबूत ईंटों में दरारों के रूप में मौसमों के रवैये से तब्दीलियां नहीं आती.
लेकिन कच्चे घरों में कुछ मजबूरियां भी पलती हैं. मजबूरियां कब आज़माइशों में बदल जाती है पता ही नहीं पड़ता. चलते चलते कहिं रुक जाना पड़ता है. कभी कदम आगे बढ़ाने के लिए पिछले क़दम का त्याग करना पड़ता है. पिछड़ी हुई जिंदगानियों के लिए कुछ करने के लिए उनके हित में इंसाफ लाजमी है और सबसे अहम उनके लिए इनके दरवाज़ों का खुलना जरूरी है, जहां से होकर रोशनी उनके जहन को कुछ रौशन कर पाए.
दिन को हमें तारे नहीं दिखाई देते, इसका मतलब यह नहीं कि आसमान में तारे ही नहीं. बस हमें सारा दिन गुजर जाने का इंतजार करना पड़ता है.
देवी नागरानी

error: Content is protected !!