वैचारिकी-जरूरी है चेहरों की शिनाख्त

आँखों के आँसू खत्म हो रहे हैं। मिलकर काम करने वाले हाथों को ताकत जबाब दे रही है। छोटे छोटे सामाजिक समूह मिलकर एक दूसरे का सहारा बने हुए हैं। परिवार के परिवार पीड़ा से कराह रहे हैं। इस सदी का सबसे बुरा समय थाली में रखकर हमारे सामने परोस दिया गया है। परोसकर रखने वाले का नाम, पता, प्रणाली, चेहरा सबको पता है। लेकिन हम खामोश हैं..।
कहा जा रहा है कि यह राजनीति का विषय नहीं है। यह दोष ढूंढने के समय नहीं है। यह मिलकर लड़ने का समय है। यह सौ वर्ष में आने वाली अनिवार्य आपदा है। स्वास्थ्य प्रदेश का मामला है। इस समय नेतृत्व के हाथ मजबूत करने चाहिए..। विपक्ष को शोर मचाना चाहिए..। आदि आदि ..।
संभवतः ये सारे उदगार व्यक्तिगत सदाशयता, निर्मलता, विनम्रता, चालाकी या योजना के तहत हो लेकिन इतना निश्चित है कि सच से आँख चुराकर हम अकर्मण्यता का पोषण और नकरात्मक नायक को बल दे रहे हैं। अशिक्षा, अंधश्रद्धा, अंध विश्वाश से निर्मित नायकों के भरोसे मानवीय सरोकारों को नेपथ्य में डाल कर हम किस अंधेरों को अपनी नियति मान चुके हैं। जबकि यह दर्पण की तरह साफ है कि आपदा में हुई मौतें तकनीक दृष्टि से राजनैतिक हत्याएं हैं। न्यायपालिका से लेकर वैचारिक स्वर इन्हें पहचान रहे हैं। हत्याओं के लिए क्षमा सम्भव है, उपेक्षा या अस्वीकार्य नहीं।
सम्भवतः कुछ आस्थाएं अंधी हो। पर उन्हें पूरी कायनात को बर्बाद करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। हम नही भूल सकते कि दुनिया ने रहने लायक दुनिया बनाने के लिए बहुत कुछ किया है। उसे कुछ सिरफिरे आत्ममुग्ध अज्ञानियों के भरोसे बर्बाद नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार हर विजय का एक नायक होता है, उसी प्रकार हर त्रासदी का भी एक खलनायक होता है। विज्ञान और तकनीक के इस युग मे कोई सनक अपने नागरिकों को चुपचाप मरते हुए देख रही है। अपनी जिम्मेदारियों को राज्य सरकारें से लेकर नागरिकों तक उड़ेल रही है। देश के संसाधनों का बँटवारा अपने सिंहासन की सजावट में खर्च कर रही ही। ऐसे में उसकी शिनाख्त से परहेज करना सदाशयता नहीं, कायरता है। यही वजह है कि स्वम को दोषमुक्त मानते हुए उनका अश्वमेघ सरपट हमारी लाशों पर दौड़ रहा है।
*अपनी पीड़ा के साथ पीड़ा के लिए जिम्मेदार चेहरो को पुकारना पीड़ा के विरुद्ध समानांतर युद्ध है।* कम से कम न्यूनतम अंकुश की सम्भवना है। किसी भी घोषित -अघोषित युद्ध मे जब तक अधर्म का कोई चेहरा नहीं होता कोई भी लड़ाई नही लड़ी जा सकती।
कितनी आसानी से हम कह रहे हैं कि सारे राजनीतिक दल एक से हैं..। होंगे..! लेकिन फिलवक्त, हमारा सवाल शासक वर्ग से है। जिमेदारी उसकी है। वह अपनी जिम्मेदारी को दूसरों के कंधों पर डाल कर हमें भरमा नहीं सकता। अदृश्य डर दिखाकर हमसे हमारी जिंदगियां छिनने वाला हमारा ही नहीं, मनुष्यता का भी शत्रु है। *सबसे क्रूर मजाक – 130 करोड़ लोगो को कैसे बचाया जा सकता है। पिछले दशकों में खड़ी हुई दुनिया की बड़ी ताकत को एक बौना अहंकार अपनी अयोग्यता से नेस्तनाबूद कर रहा हो और हम उसने अपनी जान की कीमत तक ना पूँछे…।*
बहरहाल, बहुत गुस्सा है। *खूंखार चेहरों को पहचानने से इंकार करते हुए हम अपने भीतर एक खूंखार व्यक्ति पैदा कर रहे होते हैं।*

*रास बिहारी गौड़*

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