रूहानी गुरु, रूह को, मानस (हृदय) में, ईश्वर के दर्शन कराता है !

शिव शर्मा
कबीरदास जी का एक दोहा है:
गुरु गोविंद दोउ खङे, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आप की, गोविंद दियौ बताय।।
यदि कभी ऐसा हो जाए कि गुरु और भगवान , दोनो एक साथ मिल जाएं तो पहले गुरु को प्रणाम करो। कारण यह कि गुरु ने ही बताया कि ये ईश्वर हें। अब पहला सवाल,
गुरु ने ऐसा कहां बताया ! मंदिर में ? आश्रम में ? किसी पवित्र स्थान पर ? …नहीं ! इन में से कहीं भी नहीं। दूसरा सवाल – कब बताया ? बचपन में, जवानी में, बुढापे में । तीसरा प्रश्न, कैसे बताया ? बोल कर ! इशारे से ! लिख कर ! …नहीं ऐसा भी कुछ नहीं। चैथा सवाल, किस को बताया ? मुरीद के शरीर को ! बुद्धि को ! मन को !… नहीं, ऐसा कुछ नहीं। तो फिर होता क्या ?
यह दोहा जितना सरल है, अर्थ उतना ही कठिन है। यह सारी बात आंतरिक है। गुरु के हृदय तथा शिष्य के हृदय से संबंधित है। न गुरु का स्थूल शरीर ; और न ही शिष्य की भोतिक देह। शिष्य की साधना रत जीवात्मा और गुरु के अंदर का गुरु तत्व अथवा नूरानी गुरु। दर्शन स्थल मुरीद का हृदय ; मानस । अध्यातम विज्ञान में आज्ञा चक्र (ललाट पर वह जगह जहां बिंदी या तिलक लगाते हैं) को ही हृदय कहा गया है। यहां एक आलोकित त्रिकोण है। उस त्रिकोण में ज्योति बिंदु है। उसी को हृदय कहते हैं। यहीं परमातमा के दर्शन होते हैं।
शुरू में गुरु अपनी शक्ति से शिष्य की ज्ञानेंद्रियों सहित मन, बुद्धि, अहंकार को बाहर से अंदर की तरफ समेटता है। फिर उसे साधना में बैठाता है। दीक्षा मंत्र के प्रभाव से साधना परिपक्व होती है। मन-बुद्धि-अहंकार , आज्ञा चक्र आपस में मिल कर पर एक हो जाते हैं। यहीं गुरु की नूरानी छवि या ज्योति रूप के दर्शन होते हैं।
यही ज्योति रूप फिर शिष्य को आगे बढाता है। साधना के कठिन आयाम पार कराता है। अंत में परम ज्योति के समक्ष खङा कर देता है। तब परावाणी (हृदय में स्फुरित होने वाली दिव्य वाणी) से बोध कराता है कि यही परमात्मा है – तुम्हारी ही आत्मा का परम रूप। आत्मा के ज्योति अणु का अनंत रूप। सर्व व्यापी दिव्य प्रकाश। …यह स्थान हमारा हृदय ही है। ज्योति रूप गुरु और परम प्रकाश रूप परमात्मा यहीं सामने दिखते हैं। उस अवस्था में शिष्य का धर्म है कि पहले गुरु को प्रणाम करे ; और तब परम ज्योति में स्वयं को एकरूप होने दे। उक्त दोहे में यही सत्य निहित है।

error: Content is protected !!