सच कहा किसी ने
कोई कविता
नहीं करती क्रांति
ना देती है रोटी
ना पूरे करती है
खुली आँखो के सपने
नहीं पढ़ते उसे पूँजी के ढेर
ठंडे बिस्तरों पर पड़ी गर्म देह
खून चूसने वाले जबड़े
और
उस तक तो बिलकुल नहीं पहुँचती
जिसके लिए लिखी गई है
कविता
बुझे हुए चूल्हों की आग में सेंकती है
अपने शब्द..अपने अहसास …
कभी कभी
उँडेल देती है भीतर का दर्द, उल्लास या सच
अक्सर होती है
कवि का मानसिक विलास
लेकिन फिर भी
कविता का होना ज़रूरी है
वह बताती है
हांड मांस के पुतलों में अभी धड़कन बची है
कविता अंधेरो में टिमटिमाती बाती की तरह थोड़ा सा डर भगाती है ..
जीने की चाह जगाती है
कविता अपने होने को आख़िरी उम्मीद की तरह बचा कर रखती है
कविता का बचना
या रचना
मौत को चिढ़ाते हुए किसी भी सृजन का बचे रह जाना है
*रास बिहारी गौड़*