गायत्री मन्त्र के जप के नियम

ज्योति दाधीच
सनातन धर्म के समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई। समस्त ऋषि-मुनि मुक्त कंठ से गायत्री का गुण-गान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा के पवित्र वर्णन मिलते हैं। गायत्री मंत्र तीनों देव, बृह्मा, विष्णु और महेश का सार है। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूं।

यज्ञोपवीत धारण करना, गुरु दीक्षा लेना और विधिवत् मन्त्र ग्रहण करना—शास्त्रों में तीन बातें गायत्री उपासना में आवश्यक और लक्ष्य तक पहुंचने में बड़ी सहायक मानी गई हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इनके बिना गायत्री साधना नहीं हो सकती है । ईश्वर की वाणी या वेद की ऋचा को अपनाने में किसी पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं हो सकता है ।

गायत्री परब्रह्म की पराशक्ति है जो सम्पूर्ण जगत के प्राणों की रक्षा तथा पालन करती है । सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर आधुनिक काल तक ऋषि-मुनियों, साधु-महात्माओं और अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों ने गायत्री मन्त्र का आश्रय लिया है । यह मन्त्र यजुर्वेद व सामवेद में आया है लेकिन सभी वेदों में किसी-न-किसी संदर्भ में इसका बार-बार उल्लेख है ।

सभी मन्त्रों का सिरमौर है गायत्री मन्त्र!!!!

‘ॐ’ और ‘बीजमन्त्रों’ सहित गायत्री मन्त्र इस प्रकार है–

‘ॐ भू: भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात् ।।’

अर्थ–‘पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस श्रेष्ठ परमात्मा (सूर्यदेव) का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करे ।’

गायत्री साधना माता की चरण-वन्दना के समान है, वह कभी निष्फल नहीं होती है । भूल हो जाने पर उल्टा परिणाम या अनिष्ट भी नहीं होता है, इसलिए निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर गायत्री साधना करनी चाहिए; क्योंकि चिन्तित, अशान्त, उद्विग्न, उत्तेजित व भयाक्रान्त मन एक जगह नहीं ठहरता है । एकाग्रता न होने से गायत्री जप में न मन लगेगा और न ही ध्यान, तब साधक में वह चुम्बक कैसे पैदा होगी जो मां गायत्री को अपनी ओर आकर्षित करके उसके लक्ष्य की सिद्धि में सहायता कर सकें ।

यज्ञोपवीत धारण करना, गुरु दीक्षा लेना और विधिवत् मन्त्र ग्रहण करना—शास्त्रों में तीन बातें गायत्री उपासना में आवश्यक और लक्ष्य तक पहुंचने में बड़ी सहायक मानी गई हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इनके बिना गायत्री साधना नहीं हो सकती है । ईश्वर की वाणी या वेद की ऋचा को अपनाने में किसी पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं हो सकता है । पुरुषों की तरह स्त्रियां भी गायत्री उपासना कर सकती हैं और ऐसा माना जाता है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की साधना शीघ्र सफल होती है क्योंकि मां पुत्र की अपेक्षा पुत्रियों के प्रति ज्यादा उदार होती है ।

साधकों के लिए गायत्री मन्त्र जप के नियम

गायत्री मन्त्र का जप करने के लिए साधक को कुछ सामान्य नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए—

▪️ प्रात:काल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ व धुले वस्त्र धारण करके गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए ।

▪️ जप एकांत, शांत, स्वच्छ और पवित्र स्थान पर करना चाहिए ।

▪️ प्रात: सूर्योदय से २ घण्टे पूर्व गायत्री साधना आरम्भ की जा सकती है । दिन में किसी भी समय जप किया जा सकता है लेकिन सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक जप पूरा कर लेना चाहिए ।

▪️ प्रात:काल गायत्री मन्त्र का जप खड़े होकर तब तक करें जब तक सूर्य भगवान के दर्शन न हो जाएं । इससे रात्रि में किये गये पाप नष्ट हो जाते हैं । संध्याकाल में गायत्री का जप बैठकर तब तक करें जब तक तारे न दीख जाएं । इससे दिन में किये गये पाप नष्ट हो जाते हैं ।

▪️ प्रात:काल जप करते समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके जप करना चाहिए । मध्याह्न में उत्तर दिशा की ओर और सायंकाल पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करना चाहिए ।

▪️ यदि घर में मां गायत्री की मूर्ति या चित्रपट किसी स्थान पर स्थापित है तो दिशा का विचार न करके उसके समीप बैठकर जप करना चाहिए ।

▪️ जप के समय नेत्र बंद करके आकाश में सूर्य के समान तेजस्वी मण्डल का ध्यान करना चाहिए। उसके मध्य में साकार उपासक गायत्री माता की मूर्ति का और निराकार उपासक ॐ अक्षर का ध्यान करते रहें । ध्यान का एक अन्य रूप है जिसमें वेदमाता गायत्री का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए मानो वह हमारे हृदय सिंहासन पर बैठी अपनी शक्तिपूर्ण किरणों को चारों ओर बिखेर रही हैं और उससे हमारा अंत:करण आलोकित हो रहा है ।

▪️ गायत्री मन्त्र का जप कुशासन पर या ऊनी और रेशमी आसनों पर बैठ कर करना चाहिए । चमड़े के बने आसन पर गायत्री मन्त्र का जप नहीं करना चाहिए ।

▪️ जप के समय पालथी मारकर या पद्मासन में ही बैठना चाहिए । साथ ही बैठते समय रीढ़ की हड्डी को एकदम सीधा रखना चाहिए । कमर झुकाकर या आगे-पीछे हिलते हुए जप नहीं करना चाहिए और न ही जप के बीच में किसी से बोलना चाहिए ।

▪️ गायत्री मन्त्र का जप तुलसी या चन्दन की माला पर करना चाहिए । माला के अभाव में कर माला (उंगलियों के पर्वोंपर) पर भी जप किया जा सकता है ।

▪️ गायत्री मन्त्र का तान्त्रिक प्रयोग करते समय लालचंदन, शंख, मोती या रुद्राक्ष आदि की मालाओं का प्रयोग किया जाता है ।

▪️ प्रात:काल यदि जप कर रहे हैं तो बिना आहार के गायत्री मन्त्र जपना चाहिए ।

▪️ धूप-दीप जला कर जप करना और भी उत्तम है ।

▪️ माला को गोमुखी में डालकर या कपड़े से ढक कर जप करना चाहिए ।

▪️ गायत्री मन्त्र का जप करते समय माला के सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । जप करते समय एक माला पूरी होने पर उसे मस्तक से लगाकर, सुमेरु को न लांघकर माला के दानों को फिर सुमेरु की उल्टी ओर से फेरना चाहिए ।

▪️ जप के समय तर्जनी उंगली का प्रयोग नहीं किया जाता है ।

▪️ जप की गिनती अवश्य करनी चाहिए क्योंकि बिना संख्या का जप ‘आसुर जप’ कहलाता है ।

▪️ गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करना चाहिए । मन्त्र का उच्चारण करने में होंठ भी नहीं हिलने चाहिए । मन-बुद्धि के द्वारा मंत्र के प्रत्येक वर्ण व शब्द के अर्थ का चिन्तन करते हुए जो जप मन-ही-मन किया जाता है, वही जप श्रेष्ठ होता है ।

▪️ मन्त्र जप करते समय चित्त शान्त और एकाग्र होना चाहिए ।

▪️ गृहस्थ को प्रतिदिन गायत्री मन्त्र की एक माला (१०८ बार) का जाप करना चाहिए जबकि अधिक माला जपने की सुविधा हो तो ३, ५, ७, ११ आदि विषम संख्या में मालाएं जपनी चाहिए । गायत्री मन्त्र का एक हजार बार जाप सबसे उत्तम माना गया है । ऐसा माना जाता है कि प्रतिदिन सात बार गायत्री मन्त्र का जप करने से शरीर पवित्र होता है, दस बार जप करने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है, बीस बार जपने से गायत्री शिव लोक पहुंचाती है, एक सौ आठ बार जप करने से मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है और एक हजार बार जप करने से तीनों जन्मों का पाप नष्ट हो जाता है ।

▪️ वानप्रस्थी और संन्यासी को तीनों संध्याकाल में हर बार दो हजार से अधिक की संख्या में गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए । सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक जप किया जा सकता है । रात्रि में जप नहीं करना चाहिए ।

▪️ जप करते समय बीच में उठना नहीं चाहिए । यदि किसी कारणवश उठना ही पड़े तो दोबारा हाथ-मुंह धोकर ही जप के लिए बैठना चाहिए ।

▪️मन्त्र जप का समय रोज-रोज बदलना नहीं चाहिए । प्रतिदिन नियत समय पर ही मन्त्र जप करना चाहिए ।

▪️ जन्म-मृत्यु आदि अशौचकाल में या यात्रा या बीमारी के समय केवल मानसिक जप करना चाहिए ।

▪️ यदि कभी बाहर जाने पर या अन्य कारणों से जप छूट जाए तो थोड़ा-थोड़ा करके उस छूटे हुए जप को पूरा कर लेना चाहिए और एक माला प्रायश्चित रूप में करनी चाहिए ।

▪️ जप पूरा हो जाने पर त्रुटियों के लिए क्षमा-प्रार्थना कर गायत्री स्तोत्र या चालीसा का पाठ करना अच्छा रहता है । लेकिन इतना याद न हो तो केवल भावना से ही क्षमा-प्रार्थना कर लेनी चाहिए ।

▪️ गायत्री के उपासक को अपना आहार शुद्ध और सात्विक रखना चाहिए । जपकाल में मांस-मछली, अण्डा, मदिरा, तम्बाकू और गुटखा आदि अन्य तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए । जिनका आहार सात्विक नहीं है, वे भी उपासना कर सकते हैं, क्योंकि गायत्री जप से उनकी बुराइयां समाप्त होने लगती हैं और वे कुछ ही दिनों में सतोगुणी बन जाते हैं ।

▪️ साधक को अपना व्यवहार भी शुद्ध, सरल और सात्विक रखना चाहिए । क्रोध, झूठ बोलना, लोभ, आलस्य प्रमाद, ईर्ष्या, परनिन्दा, कलह, निष्ठुरता व फैशनपरस्ती आदि से बचना चाहिए ।

▪️ उत्साह में कमी, नीरसता, जप से जल्दी लाभ न मिलना, बीमारी या अन्य सांसारिक कठिनाइयों का आना साधना के विघ्न हैं, इन विघ्नों से दृढ़तापूर्वक लड़ते हुए मन्त्र जप में निरन्तरता रहनी चाहिए ।

▪️ किसी भी मन्त्र की सिद्धि के लिए उस मन्त्र में श्रद्धा और विश्वास होना बहुत जरुरी है । श्रद्धा और विश्वास के बल पर ही ध्रुव और नामदेव को भगवान का साक्षात्कार हुआ । मनुष्य यदि वेद का अध्ययन न कर सके तो केवल गायत्री जप करने से ही वेदाध्ययन का फल मिल जाता है ।

इन नियमों का पालन करते हुए गायत्री मन्त्र का बारह वर्ष तक जप किया जाए और जो साधक सवा करोड़ गायत्री मन्त्र का जप कर लेता है वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है और अंत में मुक्ति प्राप्त करता है।

ज्योतिर्विद ज्योति दाधीच, पुष्कर

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