इक्कीस वर्ष की उम्र में लाया था ।
सचमुच उस दिन मैं
फूला नहीं समाया था ।
सड़कें भीड़-भाड़ रहित थी
ख़ूब दौड़ाता ।
घंटों का काम
मिनटों में हो जाता ।
आस-पास गाँवों में भी
विचरण कर आता ।
कोई लिफ़्ट माँगता
तो उसे भी बैठा लाता ।
घंटी भी उसकी
अलग-न्यारी थी ।
टर्न-टर्न की आवाज़
बहुत प्यारी थी ।
रात को जब कभी
चलाते थे ।
बड़ा मज़ा आता
जब टॉर्च लटकाते थे ।
न धुँआ न प्रदूषण
न दुर्घटना का भय ।
पैदल चलने वाला भी
निश्चिंत- निर्भय ।
कभी- कभार
गिर-भीड़ जाते ।
हल्की चोट लगती
और उठ जाते ।
आज दुनियाँ
बहुत आगे बढ़ गई है ।
पर यह भी सच है
साइकिल का कोई विकल्प नहीं है ।
– नटवर पारीक, डीडवाना