ध्यान ही जीवन है। हमारा जीवन धन्य हो जाए यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं। भगवान महावीर का आदर्श वाक्य है -“मित्ती में सव्व भूएसु।”अर्थात्’ सब प्राणियों से मेरी मैत्री है।’ भगवान महावीर स्वामी का जीवन ही उनका संदेश माना जाता है। धीरे-धीरे उन्होंने पूर्ण आत्मसाधना प्राप्त कर ली थी। बताते हैं कि भगवान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की थी और तरह-तरह के कष्ट झेले। अन्त में उन्हें ‘केवलज्ञान’ प्राप्त हुआ। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया।अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभाँति समझ सके। भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका, सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है। कहते हैं कि भगवान महावीर स्वामी के समय भी महामारी का प्रकोप था।महावीर स्वामी ने उस समय ध्यान को महामारी से निपटने का हथियार बनाया था। दरअसल, महामारी के भी दो प्रकार है। एक शारीरिक महामारी और दूसरी है इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं की महामारी। शारीरिक महामारी शरीर पर प्रभाव डालती हैं जबकि इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं की महामारी मन को प्रभावित करती है। भगवान महावीर हमेशा ध्यान, साधना में लीन रहते थे।उनका मानना था कि ध्यान ही महामारी से मुक्त होने के लिए सर्वोत्तम है। ध्यान की गहराई में उतरकर हम महामारी से मुक्त हो सकते हैं। मेडिटेशन या ध्यान दवाई का काम करता है क्योंकि ध्यान में लीन होकर आदमी सबकुछ भूल जाता है, ध्यान में वह अपने आप से मिलता है। आदमी सात्विक विचार और व्यवहार से कुछ भी कर सकता है। इसलिए सात्विकता, अच्छा आचार व्यवहार जीवन में बहुत जरूरी है। आज पूरे विश्व को भगवान महावीर से प्रेरणा लेने की जरूरत है क्योंकि आज पूरा एक बार पुनः विश्व कोरोना जैसी महामारी का दंश झेल रहा है। जानकारी देना चाहूंगा कि मानव जाति को अंधकार से प्रकाश की ओर लाने वाले भगवान श्री महावीर स्वामी को वीर, अतिवीर और सन्मति भी कहा जाता है। बहरहाल, जानकारी देना चाहूंगा कि महावीर ने लोगों को समृद्ध जीवन और आंतरिक शांति पाने के लिए पांच सिद्धांत बताए हैं। भगवान महावीर का पहला सिद्धांत है अहिंसा, इस सिद्धांत में उन्होंने जैनों लोगों को हर परिस्थिति में हिंसा से दूर रहने का संदेश दिया है।उन्होंने बताया कि भूल कर भी किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। भगवान महावीर का दूसरा सिद्धांत है सत्य। भगवान महावीर कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य के सानिध्य में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है। यही वजह है कि उन्होंने लोगों को हमेशा सत्य बोलने के लिए प्रेरित किया। तीसरा सिद्धांत है अस्तेय।अस्तेय का पालन करने वाले किसी भी रूप में अपने मन के मुताबिक वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसे लोग जीवन में हमेशा संयम से रहते हैं और सिर्फ वही वस्तु लेते हैं जो उन्हें दी जाती है। चौथा सिद्धांत है ब्रह्मचर्य।इस सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए जैन व्यक्तियों को पवित्रता के गुणों का प्रदर्शन करने की आवश्यकता होती है। जिसके अंतर्गत वो कामुक गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं। और पांचवा तथा अंतिम सिद्धांत है अपरिग्रह, यह शिक्षा सभी पिछले सिद्धांतों को जोड़ती है। माना जाता है कि अपरिग्रह का पालन करने से जैनों की चेतना जागती है और वे सांसारिक एवं भोग की वस्तुओं का त्याग कर देते हैं। संक्षेप में यह बात कही जा सकती है कि भगवान महावीर स्वामी ने इस संपूर्ण संसार को यह संदेश दिया कि हमें हिंसा किसी भी रूप में नहीं करनी चाहिए। सदा सत्य बोलना चाहिए। निर्बल, दुखी, असहाय लोगों और पशुओं को कभी नहीं सताना चाहिए। भगवान महावीर ने यह बात कही है कि-‘जिस तरह से आपको दुःख अच्छा नही लगता है, उसी तरह दूसरे लोग भी इसे पसंद नही करते है, अत: आपको दूसरों के साथ वह नही करना चाहिए जो आप दूसरे लोगों से अपने साथ नही करना देना चाहते है।’ उन्होंने कहा है कि प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता। उनका मानना है कि शांति और आत्मनियंत्रण ही सही मायने में अहिंसा है। वास्तव में, हर जीवित प्राणी के प्रति दयाभाव ही अहिंसा है। हम यह भी कह सकते हैं कि सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान का भाव ही अहिंसा है। घृणा से मनुष्य का विनाश होता है। अतः मनुष्य के जीवन में घृणा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।महावीर कहते हैं कि खुद पर विजय प्राप्त करना, लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है। यदि मनुष्य खुद पर विजय प्राप्त कर ले,तो वह जीवन में कभी भी दुखी,परेशान नहीं हो सकता है।असली शत्रु मनुष्य के भीतर रहते हैं। लालच, द्वेष, क्रोध, घमंड और आसक्ति और नफरत ही वास्तव में शत्रु हैं। भगवान महावीर का यह मानना है कि आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है। आज का मनुष्य दुखी है तो वह स्वयं के दोष की वजह से ही दुखी है और मनुष्य यदि चाहे तो वह अपनी गलती सुधारकर कभी भी प्रसन्न व खुश हो सकता है।मनुष्य को हमेशा अपने मन, वचन, कर्म से शुद्ध होना चाहिए और मानवता के लिए कृतसंकल्पित होकर कार्य करना चाहिए।
(आलेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है।पाठक अपने ज्ञानवर्धन मात्र हेतु इसे पढ़ें।)
सुनील कुमार महला,
स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार
पटियाला, पंजाब
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