*भ्रष्ट सिस्टम और जवाबदेही का अभाव देश के लिए घातक*

*संसद भवन टपकने के बाद निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर सवाल, बारिश खोल रही है सब तरफ पोल*
————————————
*■ ओम माथुर ■*
*एक मित्र ने शहर में बारिश के बाद जगह-जगह पानी जमा होने के कारण हो रही परेशानी के कारण विधायक को फोन किया और समस्या बताई। उन्होंने जवाब दिया, मुझे क्या कह रहे हो। सीएम साहब से बात करो। राजधानी जयपुर तो पूरा पानी से भरा पड़ा है और आपको अजमेर की चिंता हो रही है। मित्र ने जुगाड़ लगाकर किसी तरह सीएम से बात की,तो उनका जवाब था। मुझे पता है जयपुर सहित राजस्थान के कई शहर पानी मे डूबे हैं। लेकिन मुझे क्या बता रहे हो। पीएम से बात करो,देख नहीं रहे,दिल्ली की हालत क्या हो रही है। नए बने संसद भवन की छत तक तो टपक रही है। तुम्हें अजमेर-जयपुर की पड़ी है। जब दिल्ली में बेसमेंट में डूबकर तीन विद्यार्थी मर सकते हैं,तो जयपुर में क्यों नहीं मर सकते। मित्र ने फिर तिकड़म लगाई,तो पीएम से बात हो गई। उसने समस्या बताई तो जवाब मिला,हम क्या कर सकते हैं। बारिश में दिल्ली-जयपुर सहित अन्य शहरों का तालाब बन जाना हमारी गलती नहीं हैं। सरकार तो पैसा दे सकती है। बनाना तो इंजीनियरों, ठेकेदारों और अफसरों का काम है। अब ये आसान थोड़े है कि इनमें से कौन जिम्मेदार है,ये पता लग सके।*

ओम माथुर
*बिल्कुल,ये बातचीत पूरी तरह काल्पनिक काल्पनिक है। लेकिन क्या यही हमारे देश की हकीकत नहीं है? गुरुवार से देश भर में हो रही बरसात के बाद टीवी चैनलों पर जो दृश्य दिखाए जा रहे हैं। उससे एक बात तो साबित हो गई कि हमारे देश का सिस्टम इतना बेशर्म और बेहया हो गया है कि जवाबदेही और जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। प्रशासनिक स्तर पर सबसे छोटे माने जाने वाले पंचायत भवन से देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद भवन तक या तो टपक रहा है या वहां पानी भरा है।गांव से लेकर शहर तक पंचायत भवन,उपखंड कार्यालय, जिला कलक्टर कार्यालय, स्कूलें,कालेज, पुलिस थाने,अस्पताल,सरकारी दफ्तरों की इमारतें,रेलवे स्टेशन,बस स्टैंड और इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक की यही हालत दिख रही है। सड़कों की तो पूछिए ही मत। पता ही नहीं लगता है कि सड़क है या दरिया। अंडरपास और अंडरब्रिज तालाब बन गए हैं। पुल ताश के पत्तों की तरह बरसात में बह रहे हैं।*
*संसद भवन की छत का टपकना हमारे देश में निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर सबसे बड़ा सवालिया निशान है। लोकसभा सचिवालय ने बयान जारी कर कहा कि गलियारों में प्राकृतिक रोशनी के लिए कांच के डोम लगाए गए हैं। बारिश के कारण डोम को चिपकाने वाला पदार्थ निकल गया था। इसलिए लीकेज हुआ। मेरे पड़ोसी ने भी अपनी छत पर प्राकृतिक रोशनी के लिए इसी तरह कांच का डोम लगा रखा है। लेकिन उसे चिपकाने वाला पदार्थ 20 बरसात सहने के बाद भी अब तक नहीं हटा। लेकिन जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट था और जिस पर लगभग 1000 करोड रुपए खर्च हुए,वह सांसद भवन पहली बरसात में टपक गया। लेकिन फिर भी सरकार ने किसी की जवाबदेही तय करते हुए उसके खिलाफ एक्शन नहीं लिया। ना निर्माणकर्ता कंपनी के खिलाफ, ना निर्माण की निगरानी करने वाले इंजीनियरों और अफसरों के खिलाफ। क्या अच्छा होता है कि संसद भवन टपकने के जिम्मेदार लोगों पर तुरंत कार्रवाई करके यह संदेश दिया जाता की निर्माण कार्यों में गुणवत्ता की कमी और लापरवाही को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जिस भवन में बैठकर देश के विकास की नीतियां बनाई जाती है,कानून बनाए जाते हैं। जहां देशभर को नेतृत्व देने वाले सांसद बैठते हैं। अगर उसके निर्माण में हुई लापरवाही को नजरअंदाज किया जा सकता है,तो फिर आसानी से समझा जा सकता है कि देशभर में ऐसी लापरवाहियों के जिम्मेदारों पर क्या एक्शन होता होगा?*
*सवाल ये है कि दो-तीन साल पहले ही बनने वाले भवन क्यों टपकने लगते हैं। बारिश का पानी क्यों सड़कों पर बहता है। क्यों प्रापर ड्रेनेज की व्यवस्था नहीं होती है। क्यों सड़कें बरसात में गड्ढों में तब्दील हो जाती है। क्या हमारे देश के वास्तुकार, नगर नियोजक, इंजीनियर,ठेकेदार समझदार नहीं है। क्या उनमें विकसित होती तकनीक के साथ समन्वय करने की क्षमता नहीं होती। क्या उनमें निर्माण की पर्याप्त समझ नहीं है। ये तो हो नहीं सकता। फिर सीधी सी बात यही है कि ईमानदारी को ताक में रखकर भ्रष्टाचार ही उनका इमान बन गया है। ठेकेदार, इंजीनियर,अधिकारियों और नेताओं का गठजोड़ रकम के बंटवारे में लग जाता है और हर बरसात में भुगतना पड़ता है लोगों को। क्या कारण है कि अंग्रेजों के शासनकाल में बनी इमारतें और पुल आज भी तनकर खड़े हैं और आजादी के बाद,विशेषकर पिछले कुछ सालों में हो रहे निर्माण कुछ बारिश बाद ही दरक रहे हैं,टूट रहे हैं। हर साल हर राज्य में अरबों रूपए के आधारभूत ढांचे के काम होते हैं। लेकिन हर साल करोड़ों रूपए के काम बारिश में बह जाते हैं। सिस्टम को सुधारना अब नामुमकिन सा होता जा रहा है। जब ना खाऊंगा ना खाने दूंगा का नारा देने वाले मोदी हघ इसमें नाकाम होते दिख रहे हैं,तो अब किसका इंतजार करें। चंदे के धंधे से चलती राजनीति में क्या ईमानदारी के लिए कुछ जगह बचेगी।*
*9351415379*

error: Content is protected !!