दलितों पर अत्याचारों के मामलों में हुई बढ़ोतरी

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 एवं नियम 1995 को पूरे 23 वर्ष हो गए हैं। इसके बावजूद अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति पर अत्याचारों की बढ़ती दर तथा अपराधियों को दोषी करार दिए जाने की दर बहुत कम है जो कि चिंता का विषय है। साथ ही राज्य एवं जिला स्तर पर कानून लागू करने वाले अधिकारियों के बीच समंवय का अभाव है। कुल मिलाकर अधिनियम के अनिवार्य प्रावधानों का राज्यों में क्रियांवयन न होने से एक गंभीर मुद्दा उठा है और वह है ‘‘अधिनियम तथा नियमों के प्रभावकारी क्रियांवयन की आवश्यकता तथा अधिनियम के अंतर्गत विभिन्न जवाबदेही प्रावधानों एवं मॉनिटरिंग प्रावधानों की समीक्षा।
अत्याचार पीड़ितों का समर्थन करने वाले दलित एवं मानव अधिकार संगठन इस अधिनियम में विभिन्न कमियों के विस्तृत विवरण के साथ संयुक्त रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अत्याचार निवारण अधिनियम के क्रियांवयन में काफी खामियां हैं जबकि अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य अत्याचार का निवारण करना है। इस संबंध में जो प्रमुख चिंताएं हैं वे इस अत्याचार का निवारण करना हैं। इस संबंध में जो प्रमुख चिंताएं हैं वे इस प्रकार हैं-मामलों का पंजीकरण न होना, जांच में अनावश्यक एवं अत्यधिक विलंब होना, दोषियों/अपराधियों को गिरफ्तार न करना, चार्जशीट में अनावश्यक विलंब, मामलों के लंबित होने की ऊंची दर एवं मामलों के निपटाने में अत्यधिक विलंब, अधिनियम के निवारक एवं सावधानी के लिए उठाए जाने वाले कदमों या उपायों का अपर्याप्त उपयोग, अधिनियम की निगरानी के लिए गठित समितियों एवं अन्य प्रावधानों (राज्य एवं जिला स्तर पर प्रकोष्ठ) अधिनियम का उचित उपयोग नहीं हुआ है या ये सक्रिय नहीं है, राज्य एवं जिला स्तरीय अधिकारियों द्वारा पब्लिक प्रोस्क्यूटरों एवं अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत मामलों का नियमित न होना, पीड़ित को पुनर्वास एवं राहत देने में अनावश्यक विलंब। यानी हम पूरे देशभर और राजस्थान के आंकड़े देखें तो उपरोक्त कमियां नजर आती हैं।
पिछले 15 वर्षों में (1995-2011) दलितों पर अत्याचारों के 5 लाख 58 हजार 103 केस दर्ज किए गए। इनमें 4 लाख 71 हजार 717 अनुसूचित जातियों और 86 हजार 386 अनुसूचित जनजातियों से जुड़े मामले हैं। एक अनुमान के अनुसार 1995-2010 में दलितों एवं आदिवासियों के अत्याचार पीड़ितों की संख्या 1.5 करोड़ है और दिन प्रतिदिन 2.8 प्रतिशत या वार्षिक दर से बढ़ती जा रही है। प्रति 15 मिनट में 4 दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार होते हैं। प्रति 3 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। 2 दलितों की हत्या और 11 दलितों को पीटा जाता हैं। प्रति सप्ताह 13 दलितों की हत्या की जाती है। 5 दलितों के घर जला दिए जाते हैं और 6 दलितों का अपहरण किया जाता है। वर्ष 2010 के 10 अत्याचार ग्रसित राज्यों में राजस्थान का स्थान दूसरा है। वर्ष 2007 से 2009 में राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचारों की दर में 10.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई। अनुसूचित जाति की राष्ट्रीय अपराध दर 2009 में भले ही 2.9 प्रतिशत रही परंतु राजस्थान में यही दर 7.5 प्रतिशत और 2010 में राष्ट्रीय अपराध दर 2.8 प्रतिशत के मुकाबले 7.4 प्रतिशत रही। दूसरी तरफ 2007 से 2010 के एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 67 प्रतिशत अपराध अनुसूचित जाति के लोगों पर और 81 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति पर हुए
अपराध अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज नहीं हुए। वर्ष 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर 34 हजार 127 अत्याचार के मामलों में से केवल 11 हजार 682 (34.2 प्रतिशत) मामले ही अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज हुए।
राजस्थान और मध्यप्रदेश राज्यों में 95 प्रतिशत मामले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज नहीं हुए बल्कि भारतीय दंड संहिता या अन्य अधिनियमों के तहत दर्ज किए गए। 2010 के अंत में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के 1 लाख 1251(80 प्रतिशत) मामले लंबित पड़े थे। इससे पता चलता है कि वर्ष 2011 से लंबित मामलों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है, जब 2001 में भी लंबित दर 82.5 प्रतिशत थी। 2010 के अंत में बहुत से राज्यों में 80 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति के मामले लंबित थे। राजस्थान में यह दर 86.2 प्रतिशत थी। 2010 में पुलिस ने अनुसूचित जातियों पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज 16 हजार 601 मामलों में से 2 हजार 150 (13 प्रतिशत) मामले बंद कर दिए। 2010 के अंत में अनुसूचित जाति/जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों में दोषसिद्धी दर बहुत से राज्यों में 0.5 प्रतिशत से लेकर 8 प्रतिशत के बीच रही और राजस्थान में यह 4.8 प्रतिशत रही। दूसरी तरफ राजस्थान में 17 जिलों को अत्याचार ग्रस्त क्षेत्र चिंहित किए हैं परंतु सार्वजनिक तौर पर एक भी जिला या क्षेत्र अत्याचार ग्रस्त क्षेत्र घोषित नहीं किया गया।
-बाबूलाल नागा (लेखक विविधा फीचर्स के संपादक हैं)
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