दीवारें मत बनो बाबा !

राजस्थान सिंधी अकादमी जयपुर के सहयोग से मोहन थानवी का आठ
वर्ष पूर्व प्रकाशित उपन्यास करतार सिंह का हिंदी में अनूदित अंतिम भाग
प्रस्तुत है।

मोहन थानवी
मोहन थानवी

दीवारों को भी पता है। वे कहना चाहती हैं। देश के बंटवारे के बाद उत्पन्न
हुई पीड़ाएं बदन (सदन) को कमजोर कर रही हैं। बंटवारे के बाद तितर बितर हुए
परिवार। दीवारें बताना चाहती हैं करतार से भरतार और हुजूर-सरकार बनने
वालों के वाकिए। उनके तरह तरह के किस्से। हरि प्रसाद से करतार सिह और
सामान्य अध्ययनरत किशोर से समाज के सम्माननीय रोहित बनने जैसे कितने ही
प्रकरण, कहानियां हैं आश्रम की अबोली गूंगी दीवारों के पास। दीवारों के
मुंह तो बहुत ही हैं, जुबानें भी कई तरह की हैं। हिंदी, गुजराती, सिंधी,
पंजाबी, बंगाली, मराठी और हां… ये सभी जुबानें कागज के रुपए पर छपी हुई
हैं। बोलने से लाचार। दीवारें वो जुबानें बोलना चाहती हैं लेकिन बोल सकने
की ताकत… रोटी… उनको मिलती ही नहीं। उन्हें मिलता है तो फकत आसरा।
सीमेंट। डामर। और कागजों पर उकेरे हुए काम धंधे। कल कारखाने। और  खेतों
से निकल कर सेठ साहूकारों के गोदामों में पहुंचा सड़ता हुआ अनाज।
करतार सिंह सोच रहा था, आश्रम की ये दीवारें इसी के लायक ही हैं…
शायद! करतार सिंह भी काफी कुछ कहना चाहता है। वह भी दीवारों की मानिंद
है। केवल दीवारों मे मुंह डालकर रोता नहीं। और, रोएगा भी नहीं ! तभी तो
करतार है। करतार सिंह।
हरि प्रकाश और करतार सिंह में यह ही बात समान है। हरि का प्रकाश दुनिया
को रोशनी देता है। कुछ करने के लिए प्रोत्साहन देता है करतार सिंह ।

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