डर्टी मनी : भारतीय अर्थव्यवस्था का दंश

adwani blog 4.7.12गत् सप्ताह लाल किले पर स्वतंत्रता दिवस समारोह में मेरे समीप भारत के तेरहवें नौसेनाध्यक्ष एडमिरल आर.एच. ताहिलियानी बैठे थे, जो नवम्बर, 1987 में सेवानिवृत हुए। गत् वर्ष भी इसी समारोह में हम साथ ही बैठे थे, और उस समय मेरी सुपुत्री प्रतिभा ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे पर बनी अपनी टीवी डाक्यूमेंटरी की प्रति भिजवाने का वायदा किया था। उन्होंने डीवीडी के लिए उसे धन्यवाद दिया तथा उस फिल्म की भरपूर प्रशंसा की।
तत्पश्चात् अचानक ही उन्होंने मुझसे पूछा: ”मि. आडवाणी, आजकल आप कौन सी पुस्तक पढ़ रहे हो?” मैंने उन्हें बताया कि ”कल ही मुझे ‘डर्टी मनी‘ (गन्दा धन) पर एक पुस्तक मिली है जिसे मैंने पढ़ना शुरु किया है। पुस्तक के लेखक हैं रेयमण्ड बेकर। बेकर एक अमेरिकी व्यवसायी हैं और ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी के निदेशक भी। अनेक वर्षों से भ्रष्टाचार, हवाला, विकास और विदेशी नीतिगत मुद्दों विशेषकर विकासशील और संक्रमण से गुजर रही अर्थव्यवस्थों पर इसके सम्बन्ध में वह एक अतरराष्ट्रीय सम्मानित अधिकारिक स्वर माने जाते हैं।
बेकर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के उत्साही समर्थक हैं, जिसे सामान्यतया पूंजीवाद कहा जाता है जोकि साम्यवाद का विरोधी है। जिस समय मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूं तब मेरे सामने नई दिल्ली (17 अगस्त) से प्रकाशित एक समाचार पत्र है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था की बीमार हालत सम्बन्धी दो पृष्ठों का एक लेख प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है जिसमें घोषणा की गई कि ”फ्री मार्केट इन फ्री फॉल”। वास्तव में, सभी समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता दी है कि कैसे इस सप्ताह में रुपया डॉलर के मुकाबले अब तक के सर्वाधिक निचले स्तर 62.03 पर लुढ़क गया है। इसी प्रकार गत् सप्ताह बीएसई सूचकांक 769.41 था जोकि जुलाई 2009 के बाद से एक अकेले दिन में इतना तेजी से गिरा है।
जैसाकि मैंने पूर्व में उल्लेख किया कि वर्तमान में मैं डर्टी मनी पर एक पुस्तक पढ़ रहा हूं। पुस्तक का शीर्षक है: ”कैपिटेलिज्मस अकिलीज हील: डर्टी मनी एण्ड हाउ टू रिन्यू दि फ्री-मार्केट सिस्टम (Capitalism’s Achilles Heel: Dirty Money and How to Renew the Free-Market System)।” शीर्षक अपने आप में पुस्तक की विषय वस्तु को सार रुप में अभिव्यक्त करता है।
अकिलीज होमेर की पौराणिक कविता इलियाड का नायक था। वह एक बहादुर और सदैव संघर्षरत रहने वाला योध्दा था। प्रचलित दंतकथा के अनुसार उसकी मां थेटिस जो समुद्र देवी थी उसने उसके जन्म के साथ पौराणिक नदी स्टाइवक्स में, डुबकी लगवाई ताकि उसका शरीर नश्वर बन सके। दंतकथा के मुताबिक जब थेटिस ने उसे पानी में उतारा तो उसने उसकी एड़ी को पकड़ा हुआ था, जिसके चलते वह कमजोर रह गयी। अकिलीज की मृत्यु भी उसके एक शत्रु द्वारा उसकी एड़ियों में तीर मारे जाने से हुई थी।
इस पुस्तक के अनुसार एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था अति वांछनीय है, बशर्ते कि इसे ईमानदारीपूर्वक डर्टी मनी की बुराई से बचाया जाए जिससे भ्रष्टाचार ओर हवाला जैसी बुराईयां पैदा होती है।
सन् 2013 के समाप्त होने से पहले आधा दर्जन राज्यों में पांच वर्ष के बाद होने वाले चुनाव होने हैं।
और अगले वर्ष की शुरुआत में डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रुप में अपनी दूसरी पारी के पांच वर्ष पूरे करेंगे। पिछले सप्ताह नई दिल्ली से प्रकाशित प्रमुख अंग्रेजी पत्रिका इण्डिया टूडे ने देश के मूड के बारे में एक विस्तृत सर्वेक्षण प्रकाशित किया है, जिसमें प्रधानमंत्री की पूर्ण पृष्ठ पर फोटो छपी है और शीर्षक है: ”ऑनस्ट बट इनइफेक्टिव” (ईमानदार परन्तु निष्प्रभावी)। मतदाताओं का कहना है कि अब प्रधानमंत्री को अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए।
उसी पृष्ठ पर इस प्रश्न ”मनमोहन सिंह की कौन-कौन सी असफलताएं हैं? का उत्तर भी प्रकाशित किया गया है, जो इस प्रकार है:
नाजुक मौकों पर वह बोलते नहीं हैं 27%
ईमानदार होने के बावजूद वह सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं 21%
उनके पास अधिकार नहीं हैं 20%
उपरोक्त सभी 20%
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हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के केनेडी स्कूल ऑफ गर्वनमेंट ने कुछ समय पूर्व भारत के बारे में एक दिलचस्प आलेख पत्र (पेपर) प्रकाशित किया, जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को ‘असफल या असफल हो रहे देश‘ के रुप में वर्णित किया गया, लेखक भारत के बारे में कहता है:
”भारत का लोकतंत्र, किसी भी कसौटी पर अंचभित कर देने वाला है, बावजूद सभी प्रकार के दवाबों के, यहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होते हैं और सरकार चलाने वाला परिवर्तन नियमित रुप से होते हैं। अपने सभी पड़ोसियों से अलग कोई भी यह तर्क नहीं दे सकता कि भारत एक असफल होता या असफल हो चुका देश है।
इस ‘पेपर‘ को केनेडी स्कूल के प्रोफेसर लंट प्रिटचेट्ट ने लिखा है। वह विश्व बैंक में काम कर चुके हैं और कुछ समय के लिए नई दिल्ली में भी रहे हैं।
लंट प्रिटचेट्ट अपने ‘पेपर‘ में लिखते हैं।
”भारत सरकार और संभ्रात संस्थानों के उच्च पदों पर इसके अधिकारी वस्तुत: प्रभावी हैं। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय, इण्डियन इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नॉलाजी, आल इण्डिया इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साईंस जैसे कुछ विश्वस्तरीय संस्थान हैं। आई ए एस ऐसे अधिकारियों से भरा है जिन्होंने प्रवेश परीक्षा और चयन प्रक्रिया पास की है जिससे ऐसा लगता है कि वे हार्वर्ड में ऐसे आते हैं जैसे पार्क में घूम रहे हों……
”और तब भी, जैसाकि मैंने नीचे पूरी तरह से वर्णित किया है कि कार्यक्रमों और नीतियों की क्रियान्वित करने की भारत देश की क्षमता कमजोर है-और अनेक क्षेत्रों में यह स्पष्ट नहीं है कि इसमें सुधार हो रहा है या नहीं। पुलिस, कर संग्रह, शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत, जल आपूर्ति-लगभग सभी रोजमर्रा की सेवाओं में-घोर अनुपस्थिति, उदासीनता, अयोग्यता और भ्रष्टाचार है। यह रोजमर्रा की सेवाओं में तो सत्य है ही मगर इससे भी ज्यादा नेटवर्क सिंचाई या भूमिगत प्रबंधन जैसे अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी है।”
लंट प्रिटचेट्ट आगे कहते हैं कि भारत के लिए हमें एक नई श्रेणी की जरुरत है। तब वह भारत को ”एक सांट से पिटने वाला देश” (a flailing state) वर्णित करते हैं। ‘फ्लेल‘ का शब्दकोश में अर्थ है ”अपने हाथ या पैरों को अनियंत्रित ढंग से उठाना।” प्रिटचेट्ट ‘सांट से पिटने वाले देश‘ को इस रुप में परिभाषित करते हैं।
”एक राष्ट्र-राज्य जिसका शीर्ष राष्ट्रीय (और कुछ प्रदेशों में) स्तर पर प्रतिष्ठित संस्थान ठीक और काम करने वाला है लेकिन यह शीर्ष विश्वसनीय रुप से तंत्रिकाओं और स्नायुओं के माध्यम से अपने अवयवों से ही जुड़ा हुआ नहीं है।”
टेलपीस (पश्च्यलेख)
भारत सम्बन्धी 46 पृष्ठीय हार्वर्ड ‘पेपर‘ का शीर्षक है: ‘इज इण्डिया ए फ्लेलिंग स्टेट?”
पेपर की शुरुआत एक भारतीय उपन्यास के प्रश्नोत्तर के सारांश से होती है जिसमें एक अशिक्षित मजदूर वर्ग का वेटर एक खेल में एक बिलियन रुपए जीत जाता है, बाद में यह उपन्यास एक सफल फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनोर‘ के रुप में सामने आया।
अपने पेपर में ‘स्लमडॉग मिलियनोर‘ के संदर्भ के बाद, प्रिटचेट्ट व्यंग्यपूवर्क टिप्पणी करते हैं:
”जैसे-जैसे उपन्यास के प्रत्येक उदाहरण जिसमें हीरो के जीवन का वास्ता सरकार के लोगों से पड़ता है-उसके साथ बिकाऊपन और आकस्मिक क्रूरता भरा व्यवहार होता है। यह दो कारणों से विशेष उल्लेखनीय है। पहला, सरकार का बुरा व्यवहार इस पुस्तक का कथानक न ही है और नहीं इस पर टिप्पणी है, उल्टे यह चित्रण एक वास्तविक व्यक्ति के जीवन के सत्याभास को बताने के लिए हैं- ताकि पुस्तक यथार्थवादी लगे और ‘सच्चे‘ भारत से जुड़ी दिखे। दूसरे, यह उपन्यास किसी विरक्त सुधारवादी ने नहीं अपितु भारतीय विदेश सेवा के एक सक्रिय सदस्य द्वारा लिखा गया है।
भारतीय राज्य को समझने के लिए आज कल्पित कथा को पढ़ना जरुरी है क्योंकि कथेतर साहित्य, सरकारी रिपोटर् और आयोगों तथा दस्तावेज जो सरकारी एजेंसियों द्वारा तैयार किए जाते हैं (सरकार के साथ मिलकर काम कर रही विदेशी एजेंसियों सहित) वो वास्तव में कल्पित कथा ही हैं।”
लालकृष्ण आडवाणी

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