आडवाणी-भागवत के संघर्ष में मोदी महज प्यादा

30_06_2013-30nmodicmg-पुण्य प्रसून बाजपेयी- लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज को खारिज कर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में सरसंघचालक मोहन भागवत यूं ही नहीं खड़े हुये। इसके पीछे अगर पहली बार संघ की सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप की सोच है तो दूसरी तरफ उस राजनीतिक परंपरा को भी तो़ड़ना है, जो सिर्फ मनमोहन सरकार के गवर्नेंस या महंगाई या भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। संघ का मानना है कि दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता चुनाव को सिर्फ सत्ता पाने के गुणा-भाग में ही देख रहे हैं। इसीलिये बीजेपी की राजनीति का भी कांग्रेसीकरण हो गया है। संघ का मानना है कि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ पारंपरिक राजनीतिक चुनावी एजेंडा बदला जा सकता है बल्कि चुनावी राजनीति में राष्ट्रवाद का वह घोल भी घोला जा सकता है, जिसे आरएसएस हिन्दुत्व के जरीये देश को लगातार पढ़ाना चाह रहा है।

दरअसल, सरसंघचालक मोहन भागवत पहली बार देवरस की उस राजनीतिक लकीर को खिंचने के लिये तैयार है । जिसके जरीये संघ के स्वयंसेवक सीधे चुनावी राजनीति की बिसात बिछाने में जुटे और राजनीतिक स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को लागू कराने की राजनीति को ही अपना चुनावी धर्म माना। और यह तभी संभव है जब दिल्ली की राजनीति को ठेंगा दिखाते हुये कोई स्वयंसेवक बीजेपी को नये सीरे से मथे और देश के सामने बीजेपी की अगुवाई करें। आरएसएस के इतिहास को ही पलटे तो जब बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी टकराये थे तो देवरस ने मधोक को बाहर का रास्ता दिखाया। देवरस ने इसी कड़ी में कांग्रेस से निकले जेपी के साथ संघ के राजनीतिक प्रयोग करने के लिये जेपी के नेतृत्व को ना सिर्फ माना बल्कि उस वक्त संघ के समूचे कैडर को ही झोंक दिया था ।
सवाल है मोहन भागवत भी इसी रास्ते हैं लेकिन मोहन भागवत देवरस की तर्ज पर राजनीतिक लाभ या हानि को अपने माथे तिलक लगाने की हिम्मत नहीं रखते। यानी भागवत बीजेपी में सीधे हस्तक्षेप करते हुये दिखायी तो दे सकते है लेकिन इन्हें हथियार के तौर पर मोदी भी चाहिये और मोदी के नाम पर बीजेपी में सहमति भी चाहिये। असल में देवरस और भागवत के बीच के इस अंतर की सबसे बडी वजह राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद की लकीर है। संघ में हेडगेवार के बाद देवरस और उसके बाद रज्जू भइया ने राजनीति में संघ के हस्तक्षेप में राष्ट्रवाद का लेप लगाया था। जबकि गुरु गोलवरकर जनसंघ को लेकर यही कहते रहे कि जनसंघ गाजर की पूंगी है बजी तो ठीक नहीं तो खा जायेंगे। यानी गोलवरकर ने राजनीति में संघ के हस्तक्षेप में राष्ट्रवाद की जगह हिन्दुत्ववाद को जोड़ा। और आखिर तक मानते यही रहे कि जनसंघ की राजनीति का वह आंकलन करते रहेंगे लेकिन उसमें घुसेंगे नहीं। लेकिन देवरस ने राजनीति को प्रणवायु माना। और एक बार फिर मोहन भागवत राजनीति को प्राणवायु मान कर बीजेपी में सीधी दखल देने को तैयार है। लेकिन सरसंघचालक मोहन भागवत की सबसे बडी मुश्किल यह है कि वह देवरस की तर्ज पर राजनीतिक दखल भी देना चाहते है और गोलवरकर की तर्ज पर  बीजेपी में हिन्दुत्व का घोल घोलना चाहते है। असल में लालकृष्ण आडवाणी यही पर मोहन भागवत पर भारी पड़ रहे हैं। आडवाणी इस हकीकत को बाखूबी समझ रहे है कि वह संघ परिवार के स्वंयंसेवक हैं और वह सरसंघचालक भागवत के निर्णय के खिलाफ नहीं जा सकते। लेकिन हिन्दुत्व की थ्योरी के आसरे बीजेपी आगे बढ नहीं सकती और मौजूदा आरएसएस के भीतर भी एक बड़ा खेमा है जो सरसंघचालक के राजनीतिकरण को सही नहीं मानता है। तो आडवाणी की अपनी राजनीति भी दो तरफा है।
एक तरफ संघ के निर्णय के खिलाफ खुद को खडा कर उन्होने भविष्य की एनडीए यानी चुनाव बाद जो राजनीतिक दल बीजेपी के साथ आयेगे उन्हे सीधा मैसेज दे दिया कि आडवाणी अब कट्टर संघी नहीं रहे। यानी रामरथ यात्रा के दौर की अपनी उस छवि को तोड़ दिया है, जिसमें वह कट्टर संघी के तौर पर नजर आते रहे। और दूसरा झटके में नरेन्द्र मोदी के विकास या गवर्नेंस के नारे को भी धराशायी कर मोदी को संघ के राजनीतिक प्यादे के तौर पर खड़ा कर दिया। असल में स्वयंसेवको की इस आपसी लड़ाई का सबसे बडा अंतर्विरोध यही है कि जो आडवाणी कहना चाह रहे है और मोहन भागवत जो लागू करवाना चाह रहे है उसके बीचे में नरेन्द्र मोदी खड़े हैं जो खुद बतौर स्वयसंवक कोई पहल नहीं कर रहे और बार बार सिर्फ गुजरात के अजेय योद्दा के तौर पर ही हर जगह खुद को रख रहे है। तो असर इसी का है कि आडवाणी की भी जरुरत मोदी को निशाने पर रखने की है तो सरसंघचालक के लिये मोदी की लोकप्रियता सबसे धारदार हथियार है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी
पुण्य प्रसून वाजपेयी

इस रास्ते जिन्हे भी जो भी समझाने की जरुरत पड रही है उस दिशा में संघ कई कदम आगे बढकर पहल कर रहा है। इसीलिये दिल्ली की बैठक में मोदी को एक आंख ना सुहाने वाले प्रवीण तोगडिया को भी शामिल किया गया। इसीलिये आडवाणी और सुषमा से मोहन भागवत और भैयाजी जोशी ने अलग से मुलाकात भी की। इसीलिये नीतिन गडकरी के जरीये धारा 370, कामन सिविल कोड और अयोध्या मुद्दे को दोबारा जगाने की कोशिश संघ ने बीजेपी के साथ दिल्ली बैठक में की। यानी बीजेपी जिस रास्ते को छोड कर एनडीए बना पायी उस एनडीए को मोदी की लोकप्रियता तले संघ खारिज करना चाह रहा है और मोदी खामोश है। क्योंकि वह समझ चुके है कि दिल्ली का रास्ता उनके गुजरात गवर्नेंस के भरोसे नापा नहीं जा सकता। तो मोदी की जरुरत संघ परिवार है। वही आडवाणी समझ चुके हैं कि अपनी कट्टर संघी की छवि तोडने का इससे बेहतर मौका उन्हे मिल नहीं सकता तो वह मोदी के खिलाफ है। और सरसंघचालक मोहन भागवत यही समझ रहे है कि काग्रेस के खिलाफ देश में अर्से बाद जिस तरह का माहौल है उसमें संघ के एंजेडे को दुबारा राजनीति के केन्द्र में लाने के लिए इससे बेहतर वक्त और कोई हो नहीं सकता। तो यह संघर्ष शतरंज की शह-मात की जगह चौसर की कौड़ियो की हो चली है। जो अभी ना तो अंत होगा और ना ही कोई नयी शुरुआत।

1 thought on “आडवाणी-भागवत के संघर्ष में मोदी महज प्यादा”

  1. नरेन्द्र मोदी जी ने कहा की वे प्रधानमन्त्री बनने का सपना नहीं देखते फिर भावी प्रधानमंत्री नाम के एलान के लिए भागे भागे दिली पहुँचते हें साफ़ जाहिर हें उनकी कथनी एवं करनी में फर्क हें.

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