गन्ना मीलों पर बकाया किसानों के 23,000 करोड़ रूपए का माई-बाप कौन ?

— मौजूदा सरकार समस्याएं घटाने के बजाए और बढ़ा रही हैं
— मिल मालिक और किसान, दोनों ही परेशान
— सरकारी नीति बढ़ा रही शुद्ध पेय जल का संकट
— उत्पादन में हुई बढ़ोतरी और मांग में कटौती

देश के गन्ना किसानों के सामने हजारों करोड़ रूपए का बकाया भुगतान एक जानलेवा समस्या के रूप में कड़ी हुई हैं. जिसके चलते मजबूर किसान समय-समय पर आंदोलन और आत्महत्या करने जैसा गंभीर कदम उठा लेते हैं. विशेषज्ञ मौजूदा हालातों को आगामी सालों में और अधिक गंभीर होने की आशंका जाताते रहे हैं. लेकिन प्रश्न यह उठता हैं कि आखिर किसानों को गन्ने की बकाया राशि क्यों नहीं दी जा रही है और इस समस्या की शुरुआत कहां से हुई और इसका जिम्मेदार कौन हैं? इन सवालों के जवाब ढूंढने से पहले हमें देश के गन्ना व्यापार के पूरे अर्थशास्त्र को समझने की जरुरत हैं जिसमे एक नहीं कई त्रुटियां नजर आती हैं. हमारे देश में गन्ने की कीमत तो सरकारों द्वारा तय की जाती है लेकिन चीनी की कीमत बाजार की मांग और आपूर्ति के आधार पर निर्धारित होती है. मौजूदा समय में मांग और आपूर्ति में विसंगति ही भारी बकाया का मुख्य कारण बन गया है. नए मीठे पदार्थों की खोज और स्वास्थ्य के प्रति बढ़ी लोगों की जागरूकता के परिणामस्वरूप चीनी की मांग धीरे धीरे कम होती जा रही है. हालांकि मांग में कमी के बावजूद बेहतर बीज, प्रति एकड़ गन्ना की उत्पादकता, और पिछले दशक में गन्ने के फसल के तेजी से भुगतान के कारण उत्पादन में वृद्धि बनी हुई है।

नरेश यादव जी का कहना हैं कि मौजूदा सरकार समस्याएं घटाने के बजाए और बढ़ा रही हैं

भारत ब्राजील के बाद सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन करने वाला दूसरा बड़ा देश है. वहीं देश के उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन होता है. जहां देश में 2015-16 के दौरान 24.8 मिलियन टन गन्ने का उत्पादन हुआ वहीं 2017-18 के दौरान यह आंकड़ा बढ़कर 32 मिलियन टन के भी पार पहुंच गया. जबकि आगामी वर्ष यानी 2018-19 के दौरान इसके 35 मिलियन टन को पार कर जाने की उम्मीद है. हालांकि इतने अधिक उत्पादन के बाद भी मांग केवल 25 मिलियन टन के इर्द गिर्द ही लटकी हुई है. मांग सीमित होने के कारण चीनी के दाम तेजी से नीचे गिरे हैं लिहाजा गन्ने की फसल का बकाया दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है. ऐसे में उपरोक्त कथनों को अपनी जगह सही मान लिया जाए तो भी यह सवाल खड़ा होना लाजमी है कि मिल मालिक आखिर कैसे किसानों को हजारों करोड़ रूपए का भुगतान करने वाले हैं? या करने वाले भी हैं कि नहीं इसकी भी जिम्मेदारी कौन ले रहा है?

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स बताती है कि मिलों पर बकाया की कहानी हाल के सालों तक ही सीमित नहीं है. कई वर्षों से किसानों से गन्ना लेती आ रही यह मिलें कितना कुंटल गन्ना लिया, कितना करदा कटा या कितना भुगतान बना, इन सब का लेखा जोखा लाल, पीली, नीली और सफेद पर्ची के रूप में रखती हैं. लेकिन किसानों को इस बात की जानकारी नहीं दी जाती कि उन्हें भुगतान कब तक किया जाएगा. इससे अधिक चिंता का विषय यह है कि मिलों को बकाया के बोझ से मुक्ति दिलाने और किसानों को समय पर उनकी उपजा का मूल्य दिलवाने की दिशा में आज तक किसी भी सरकार ने एक स्थायी समाधान खोजने की कोशिश नहीं की.

केंद्र की मोदी सरकार ने इसी साल मई-जून के बीच में 8 हजार करोड़ रूपए के राहत पैकेज की घोषणा की थी. इस पैकेज के तहत सरकार की योजना इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देकर और सेल्स कोटे को बाध्य करके बाजार में चीनी की कमी को कम करते हुए चीनी की कीमतों में वृद्धि करने का प्रयास करने की थी. इसके लिए सरकार ने चीनी मिलों को 5732 करोड़ रूपए का ऋण दिया और चीनी से राजस्व पर निर्भरता कम करने के लिए अन्य उत्पादों के बजाए सीधा चीनी से ही इथेनॉल बनाने की छूट दे दी. हालांकि कच्चे तेल की कीमतों में तेजी से आने वाली गिरावट के चलते इथेनॉल मिश्रण से अधिक फायदा मिलने की उम्मीद कम ही हैं. इसके अलावा गन्ने में लगने वाली पानी की अधिकता को देखते हुए भी इथेनॉल के उत्पादन पर जोर देना एक बुरी नीति का उदाहरण देती हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 60 करोड़ लोग भारी जल संकट से जूझ रहे हैं और पीने का साफ पानी न मिलने की वजह से हर साल लगभग 2 लाख लोगों की मौत हो जाती हैं. ऐसे में अगर गन्ने की खेती में और अधिक वृद्धि दर्ज की जाती है तो यह देश की आधी से ज्यादा आबादी के लिए गहरा पानी का संकट पैदा कर सकती है.

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