अन्ना के आंदोलन की धार क्यों ख़त्म हुई?

अन्ना हजारे की टीम ने स्पष्ट कर दिया है कि अब वो राजनीति से सीधे दो चार होगी. लेकिन ये अभी हम नहीं जानते कि इस राजनीतिक पार्टी का स्वरूप क्या होगा, या फिर वो चुनाव में शिरकत करेगी या नहीं.

एक बात स्पष्ट हुई है कि जिस आंदोलन को घोर राजनीति विरोधी कहा गया और जिसे बाद में काँग्रेस विरोधी और बीजेपी समर्थक माना गया, वो आंदोलन इन दोनों धाराओं से मुक्त हो चुका है या वो दब चुकी हैं.

आंदोलन की मुख्य धारा अब मौजूदा राजनीति को अंगीकार करने और उसके जरिए परिवर्तन करने का प्रयास करेगी.

अन्ना अपने वक्तव्यों में, प्रशांत भूषण अपने लेखन में और अरविंद केजरीवाल अपनी किताब में जो बातें कहते रहे हैं वो सब मिलकर एक राजनीतिक व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करते हैं. पर सवाल ये है कि क्या ये लोग उसे हासिल करने में सफल होंगे?

ये बहुत कठिन काम है. भारत जैसे विशाल देश की राजनीतिक व्यवस्था को बदलना आसान काम नहीं है. कोशिशें ज़रूर हुई हैं और लोग असमर्थ रहे हैं.

ये कुछ ऐसा ही है कि पिछले डेढ़ सौ सालों में पूँजीवाद को बदलने की कोशिशें हुई हैं पर पूँजीवाद नहीं बदला. इसका मतलब ये नहीं कि बदलाव की कोशिशें ही व्यर्थ हैं या उनसे कोई बदलाव नहीं हुआ है.

कितनी नैतिकता?

अन्ना हजारे के अब तक किए अनशनों के पीछे कितनी नैतिक ताकत रही है, इस सवाल का जवाब हमारे पास नहीं है.

इसमें कोई शक नहीं कि अनशन के हथियार को बार-बार इस्तेमाल करने से उसकी धार कुंद पड़ती है. इसमें भी कोई शक नहीं कि इस बार जंतर मंतर पर किए गए अनशन को उस तरह का संख्याबल नहीं मिला जैसा कि रामलीला मैदान वाले अनशन को मिला था.

लेकिन इस आंदोलन का मुख्य आधार रामलीला मैदान या किसी भी मैदान की जनसंख्या नहीं थी.

इसका मुख्य आधार उन लोगों का नैतिक बल था जो न रामलीला मैदान में आए और न ही अपने शहर के किसी प्रदर्शन में शामिल हुए लेकिन जो मन ही मन महसूस करते हैं कि कुछ बुरा हो रहा है और ये लोग उस बुरे की काट देने वाले हैं.

आम लोगों में जब तक ये भाव बना हुआ है तब तक इस आंदोलन में ताकत बची रहेगी. और मेरे खयाल से ये भाव अभी खत्म नहीं हुआ है.

अभी ये भी स्पष्ट नहीं है कि एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर टीम अन्ना ने राजनीति की दूरगामी चुनौतियों से दोचार होने की कितनी तैयारी की है. हम ये भी नहीं जानते कि अन्ना की क्या भूमिका होगी और न ही हमें ये मालूम है कि भारत जैसे देश की विविधता को आत्मसात करने के लिए उन्होंने क्या रणनीति बनाई है.

इतिहास के सबक

ये कैसी पार्टी होगी? क्या ये भी हाईकमान वाली पार्टी होगी या फिर इसमें आंतरिक लोकतंत्र होगा? इसके संसाधन कहाँ से आएँगे? जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिलते तब तक हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि ये टीम जल्दबाजी में फैसले नहीं करेगी और उसकी निगाह 2014 के चुनावों तक ही सीमित नहीं रहेगी.

एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि टीम अन्ना से पहले भी समाज परिवर्तनकारी ताकतें सामने आई हैं पर संसदीय रास्ते पर आते ही उनके सपने धूमिल पड़ गए.

भारत और पड़ोस में वामपंथी-कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत बड़े और गहरे आंदोलन रहे. वो भी संसदीय राजनीति की फिसलन से नहीं बच पाए तो इस जैसे नए आंदोलन के लिए तो चुनौती और बड़ी होगी.

लेकिन इस आंदोलन के सामने फायदा है कि उनके पास इतिहास से सबक लेने का मौका है. पर ये पता नहीं कि इतिहास से सबक लेने को वो कितने तैयार हैं.

बेहतर होगा कि ये आंदोलन स्वीकार करे कि इस देश में बुनियादी परिवर्तन की कल्पना और प्रयास करने वाले लोग पहले भी रहे हैं और उन प्रयासों से सीखना, उनकी मजबूती को स्वीकार करना और उससे जुड़ना और उनकी कमियों से सबक सीखना बेहद जरूरी है.

 

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