प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से 8 नवंबर की रात यकायक पांच सौ व एक हजार का नोट बंद करने की घोषणा के बाद बाजार में जो अफरातफरी मची, बैंकों व एटीएम मशीनों पर जो लंबी लंबी कतारें लगीं, और जिस प्रकार आम लोगों का गुस्सा फूट रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि मोदीवादी आशंकित हैं कि जिस कदम से मोदी के और अधिक लोकप्रिय होने की उम्मीद थी, उसके विपरीत कहीं आम जनता मोदी विरोधी तो नहीं हो जाएगी? खुद मोदी के बाद के भाषणों से भी यही परिलक्षित हो रहा है कि वे जल्दबाजी में उठाए गए इस कदम से हुई परेशानी को देखते हुए मरहम लगाने की कोशिश कर रहे हैं। कष्ट पा रही जनता को मस्का लगाने के लिए महान बता रहे हैं। काम के अतिरिक्त बोझ के तले दबे बैंक कर्मियों की तारीफ कर रहे हैं। जब देखा कि स्थिति बेहद विस्फोटक हो गई है तो उन्हें पचास दिन की मोहतल मांगनी पड़ गई। और उसकी पराकाष्ठा ये है कि एक प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ गया कि अगर पचास दिन में हालात न सुधरें तो उन्हें सार्वजजिनक रूप से चाहे जो सजा दी जाए। सवाल उठता है कि यकायक फैसला लेते वक्त इन पचास दिनों का ख्याल क्यों नहीं रहा? इतना ही नहीं, इस मुद्दे पर उनका भावुक हो जाना भी यह संदेह पैदा कर रहा है कि भले ही वे अपने आप को बहादुर बता रहे हों, मगर कहीं न कहीं खुद को कमजोर महसूस कर रहे हैं। संदेह ये भी है कि कहीं भाजपा के अंदर ही एक प्रेशर ग्रुप तैयार नहीं हो गया है जो नोटबंदी के तरीके की आलोचना कर रहा है। लाडपुरा के भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत के वायरल हुए वीडियो, जिसका कि उन्होंने खंडन किया है, से तो यह साफ नजर आ रहा है कि खुद मोदी की पार्टी के लोग ही कसमसा रहे हैं, मगर पार्टी अनुशासन के कारण चुप हैं या फिर मोदी की तारीफ करने को मजबूर हैं। एक बात और ख्याल में आती है, वो यह कि चाहे गोपनीयता के चलते या फिर एकाधिकारवादी वृत्ति के कारण नोटबंदी के निर्णय और उसके बाद दिन प्रति दिन हो रहे सुधारात्मक कदमों के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली बेहद कमजोर नजर आ रहे हैं।
बेशक, विरोधी दलों का विरोध लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है, मगर जिस प्रकार नकदी की कमी से त्रस्त लोग गुस्सा रहे हैं, गालियां दे रहे हैं, वह मोदीवादियों के लिए चिंता का विषय है। सोशल मीडिया पर एक ओर जहां मोदी के इस कदम से उत्पन्न समस्याओं से जुड़े संदेश व वीडियो चल रहे हैं, कदाचित वे विरोधी दलों की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा भी हों, ठीक उसी तरह मोदीवादियों ने भी मोर्चा संभाल लिया है। उनकी पोस्टों के जरिए यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी ने देश हित में एक महान काम किया है। उसकी सराहना की जानी चाहिए। देशवासियों को संयम बरतना चाहिए। यदि थोड़ी तकलीफ हो भी रही है तो देश की खातिर उसे सहन करना चाहिए और मोदी के हाथ मजबूत करने चाहिए। यानि कि मोदी के पक्ष की ओर से डेमेज कंट्रोल की पूरी कोशिश की जा रही है। उसमें भी तुर्रा ये कि इस कदम से को आम आदमी का भरपूर समर्थन मिलने का दावा किया जा रहा है। न केवल खुद मोदी, बल्कि उनका हर समर्थक यही दावा करता दिखाई दे रहा है कि जनता बेहद खुश है।
सवाल उठता है कि यदि यह कदम सराहनीय है, तो फिर क्यों इस कदम की तारीफ पर इतना जोर दिया जा रहा है। हकीकत ये है कि आम आदमी परेशान है। भले ही उस तक यह संदेश देने में मोदी सफल रहे हों कि यह कदम देशहित में है, मगर धरातल पर हो रही परेशानी को वह सहन नहीं कर पा रहा। यह स्वाभाविक भी है। देशहित कब होगा, कब इसके परिणाम आएंगे और कितना लाभ होगा, ये तो भविष्य के गर्त में छिपा है, या फिर अर्थशास्त्री बेहतर समझ सकते हैं, मगर मौजूदा स्थिति ये है कि आम आदमी त्राहि त्राहि कर उठा है।
उसी का परिणाम है कि अब मोदी वादियों की ओर से या तो मरहम लगाने की कोशिश की जा रही है या फिर कई तरीके से इसे उचित बताने की कोशिश की जा रही है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि बैंकों के घंटों लाइनों में लगने वालों की परेशानी का मोदी और उनके सलाहकारों को तनिक भी भान नहीं था और न ही उन्होंने इसके लिए कोई उपाय किए। सारे उपाय बाद में शनै: शनै: किए जा रहे हैं। सरकार के स्तर पर लापरवाही बरते जाने का ही परिणाम है कि सत्तारूढ़ भाजपा संगठन को बैंकों के बाहर जनसेवा के कैंप लगाने पड़ रहे हैं।
लब्बोलुआब, कैसी विडंबना है कि जो कदम वाकई सही था, अकेले इस वजह से कि ठीक से लागू नहीं किया गया, आलोचना के चरम पर जा कर भद्दी गालियों का शिकार हो गया है। अफसोस कि अब उसी सही कदम को सही ठहराने में पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही है।
बतौर बानगी कुछ वीडियोज की लिंक यहां दी जा रही है:-
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
I think decisions of some decisions should put for the future.I hope for the best cause this decision is taken heartily.