धार्मिकता के साथ और ज्यादा अधार्मिक होता आदमी

मोटे तौर पर माना जाता है कि हमारे पूर्वज अधिक धार्मिक व ज्यादा आध्यात्मिक थे। हमारे बड़े-बूढ़े अधिक नैतिक थे, लेकिन अब मानवीय मूल्यों का हृास होता जा रहा है। संवेदना कम होती जा रही है। उसी के साथ पारिवारिक इकाइयां टूट कर छोटी होती जा रही हैं। पहले माता-पिता की सेवा का बड़ा महत्व था, जबकि अब सेवा के लिए टाइम ही नहीं है। मियां-बीवी नौकरी पर जाएं, ज्यादा बड़े पैकेज के लिए दूर-दराज के शहरों में नौकरी करें, तो मां-बाप को संभाले कौन? नतीजतन नित नए वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। आदमी आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। स्वार्थपरता बढ़ रही है। कभी वो दौर था, जब ढ़ाणी में किसी की मौत होने पर अंत्येष्टि होने तक पूरी ढ़ाणी में चूल्हा नहीं जलता था, और आज वह दौर है, जब शहरी कॉलोनियों में हर आदमी सिर्फ अपने-अपने मकान में कैद है, उसे पड़ौसी से कोई वास्ता तक नहीं। बेशक समाज की सूरत बहुत बदल गई है।
अब नजर डालें तस्वीर के दूसरे रुख पर। पिछले कुछ दशकों से हम देख रहे हैं कि धार्मिकता बढ़ रही है। धार्मिक कट्टरता में भी इजाफा हो रहा है। मंदिरों में भीड़ उमड़ती है। कई बाबाओं की पोल खुल चुकी है,मगर उनके ठिकानों पर भक्तों की कतारें अब भी लगी हुई हैं। पुराने बाबा निपटते हैं तो नए पैदा हो जाते हैं। संतों के प्रवचनों में भीड़ उमडऩे लगी है। शिव रात्रि, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी आदि अवसरों पर बड़ी धूम मचती है। नई पीढ़ी कावड़ यात्राओं में उत्साह से हिस्सा ले रही है। गरबों के आयोजन गुजरात से आ कर राजस्थान के कोने-कोने में पसर गए हैं। उनमें युवक-युवतियां जम कर नाचती हैं। गणेश चतुर्थी पर घर-घर प्रतिमाएं स्थापित करने का चलन बढ़ा है। गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन पर भी खूब मस्ती होती है। रामदेवरा जाने वाले जातरुओं की संख्या बढ़ रही है। जगह-जगह नि:शुल्क भंडारे लगते हैं। दान-पुण्य के बहुत आयोजन होते हैं। वैष्णो देवी की यात्रा का चलन बढ़ता जा रहा है। साईं बाबा के मंदिरों में आस्था बढ़ रही है। अजमेर की ख्वाजा साहब की दरगाह सहित देश की अन्य दरगाहों में जायरीन की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है।
सवाल ये उठता है कि यदि धार्मिकता इतनी ही बढ़ रही है तो झूठ, मक्कारी, बदमाशी, भ्रष्टाचार आदि की तूती क्यों बोल रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो धार्मिकता बढ़ती दिखाई दे रही है, वह फैशन का एक रूप है। ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि कई बार मेरे मित्र सवाल करते हैं कि क्या आप वैष्णो देवी नहीं गए? शिरड़ी नहीं गए? एक बार जा कर आओ। मानो आप वहां नहीं गए, यानि कि जिंदगी का कोई जरूरी काम करने से चूक गए। अब उनके कहने में धार्मिकता का भाव ज्यादा है या फिर घूमने-फिरने का, उसे समझने की कोशिश कर रहा हूं।
सवाल ये भी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आदमी इतने अधिक पाप करने लगा है कि उसे धोने के लिए धर्म का सहारा लेना पड़ रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अपने कर्म के फल से आशंकित है, इस कारण उसके उपाय के रास्ते तलाश रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आदमी इतना तनाव ग्रस्त, अशांत, दुखी व परेशान है कि धार्मिक आयोजनों से जुड़ कर मन की शांति तलाश रहा है? ये सवाल आपके विचार के लिए छोड़ता हूं।
आखिर में धार्मिकता के कमर्शियलाइजेशन के साथ अपनी बात पूरी करता हूं। मेरे एक साधन संपन्न मित्र, जो कि बड़े धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं, से मैने जब ये पूछा कि आप जो धर्म-कर्म में इतना पैसा लगाते हैं, क्या ऐसा वाकई आस्था के कारण करते हैं, तो उन्होंने धीरे अंदर की बात बताई। वो ये कि एक तो इससे सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के माने आयोजन स्थल के मंच पर प्राथमिकता मिलती है। दूसरा ये कि काला धन सफेद करने में सुविधा होती है, क्योंकि धार्मिक संस्थाओं में दान देने पर इन्कम टैक्स में छूट का प्रावधान है। तीसरा ये कि इस बहाने थोड़ा पुण्य हो जाता है। उन्होंने बताया कि अधिसंख्य प्रवचनकर्ता व कथावाचकों का बाकायदा पैकेज होता है। उससे कम से आते ही नहीं। अंदर की बात सुन कर मैं भौंचक्क रह गया। लेकिन उसका सकारात्मक पहलु ये ही ख्याल में रख कर संतोष किया कि बड़े धार्मिक आयोजनों में भले काले धन का उपयोग होता हो, मगर कम से कम आयोजन में शिरकत करने वाले लाखों लोग तो प्रवचन आदि सुन कर धर्म लाभ ले रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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