हमारी छाया में भी छिपे हुए हैं राज

पिछले एक ब्लॉग में हमने आइने में दिखने वाले प्रतिबिंब के बारे में चर्चा की थी कि हालांकि उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, फिर भी उसकी महत्ता है। अब हम चर्चा कर रहे हैं छाया की। छाया अर्थात सूर्य अथवा रोशनी के सामने आने वाली वस्तु के पीछे बनने वाली आकृति की। हम यही जानते और समझते हैं कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। हमारे शरीर की छाया के बारे में बात करने से पहले हम चर्चा कर लेते हैं छाया के कारण से होने वाले सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण की। हम सब जानते हैं कि ये छाया की ही परिणाम स्वरूप घटित होते हैं। इस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में बहुत पहले ही खोज हो चुकी है कि इनका मानव सहित चराचर जगत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ज्योतिष विज्ञानी बताते हैं कि सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण के दौरान कौन कौन से काम नहीं करने चाहिए।
आपको यह भी जानकारी होगी कि किसी व्यक्ति में असामान्य लक्षण पाए जाने पर कहा जाता है कि उस पर किसी की छाया पड गई है। अमूमन यह बात किसी भूत-प्रेत आदि के संदर्भ में कही जाती है। परियों की छाया पड जाने के बारे में भी आपने सुना होगा। किसी व्यक्ति के विचारों या आचारण पर किसी व्यक्ति का प्रभाव दिखाई देने पर भी कहा जाता है कि उस पर उस अमुक व्यक्ति की छाया पड गई है। जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिकों ने भी लक्षित परिणाम पाने के लिए छाया का प्रयोग किया है।
खैर, अब चर्चा करते हैं हमारे शरीर की छाया की। इस बारे में मुझे जो जानकारी मिली है, वह आपसे साझा करना चाहता हूं। छाया के महत्व के बारे में शिव स्वरोदय में विस्तार से चर्चा की गई है। शिव स्वरोदय भारतीय प्राकृतिक विज्ञान है। इसमें भगवान शिव प्रकृति के रहस्यों के बारे में माता पार्वती को जानकारी देते हैं।
शिव स्वरोदय में बताया गया है कि एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाएं या बैठ जाएं। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नम: मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तब तक जप करना चाहिए, जब तक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे। छह मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भांति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छह माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होने वाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।
यदि चरण, टांग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है। यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघे और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है। यदि छाया की उंगलियां न दिखाई पड़ें, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छ: माह समझना चाहिए।
हालांकि मैने इस तथ्य की गहराई को अभी तक नहीं जाना है, न ही मेरा कोई अनुभव है, लेकिन शिव स्वरोदय में जिस प्रकार लिखा गया है, उससे यह तो समझ में आता ही है कि हमारे ऋषियों ने छाया का गहन अध्ययन किया है और उसका अपना विशेष महत्व है।

-तेजवानी गिरधर
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