फल की इच्छा के बिना कर्म हो ही कैसे सकता है?

गीता के सूत्र कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन पर एक नजर
गीता का एक सूत्र है:- कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन। इसका तात्पर्य है कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा मत करो। अर्थात वह ईश्वर पर छोड़ दो। चूंकि यह सूत्र कर्मयोग के महानतम ग्रंथ गीता का है, इस कारण इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। जरूर इसका कोई गहरा अर्थ होगा। शब्दों में यह संदेश जितना सीधा सादा है, इसका अर्थ उतना ही गहरा है। यूं भी यह सीधी से बात है कि हम केवल कर्म पर ही ध्यान दें। वही हमारे हाथ में है। उसका फल क्या होगा, इसका पता नहीं। हमारी इच्छा करने से कुछ होना भी नहीं है। फल तो प्रकृति को ही तय करना है। हालांकि वास्तव में ऐसा है नहीं। फल तो हमारे कर्म के अनुसार ही तय होता है, प्रकृति तो केवल उसका आकलन करती है। जैसे परीक्षा में जितने भी सवाल हमने सुलझाए हैं, उसी के तहत नंबर मिलते हैं, मगर चूंकि उसकी गणना परीक्षक करता है, इस कारण यह प्रतीत होता है कि फल वह निर्धारित कर रहा है।
हालांकि बहुत गहरे अर्थों में गीता का सूत्र पूर्णत: सत्य है, मगर मोटे तौर पर इसमें बड़ा विरोधाभास नजर आता है। इसे यूं समझिये। हम जब भी कोई कर्म करते हैं, तो उससे पहले फल की इच्छा जागती है, तभी हम कर्म करते हैं। यदि किसी फल की कामना ही न तो हम कर्म ही क्यों करेंगे? जैसे यदि सामने परोसी हुई थाली में रखी वस्तु हमें खानी है तो मस्तिष्क हाथ को कर्म करने का आदेश देते हुए वह वस्तु पकड़ कर मुख में रखने को कहेगा। अर्थात खाने की इच्छा पहले जागृत हुई और हाथ ने कर्म बाद में किया। इसे अन्य उदाहरणों व तरीकों से भी समझा जा सकता है। यदि हमें परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होना है तो उसी के अनुरूप कर्म करना होगा, यानि कि हमारी दृष्टि में परिणाम या लक्ष्य पहले सामने रखना होता है, तभी उसके लिए अपेक्षित मेहनत करेंगे। लेकिन गीता का सूत्र इसके सर्वथा विपरीत है। वह कहता है कि फल ही इच्छा ही न कर, केवल कर्म कर। यह सूत्र समझ से परे प्रतीत होता है। ईश्वर ने हमें जो बुद्धि या समझ दी है, उसमें यह बैठता थोड़ा कठिन है।
जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, गीता का सूत्र गहरे मायने लिए हुए है। उसका संदर्भ अलग है। एक तो ये कि जैसे ही हम आसक्त भाव से कर्म करते हैं तो उसका बंधन हो जाता है। विद्वान तो यहां तक कहते हैं कि कर्म क्या, केवल विचार मात्र भी कर्म का बंधन कर देता है। किसी का हत्या करना तो दूर, हत्या का विचार भी दूषित कर्म का बंधन कर देता है। दूसरी बात ये कि जैसे ही हम फल की इच्छा करते हुए कर्म करते हैं तो भीतर अहम का भाव जागृत हो जाता है कि हमने कर्म किया, इस कारण फल मिला है। इस अहम के भाव से मुक्ति के लिए ही फल का निर्धारण प्रकृति पर छोड़ देना होता है। यही वजह है कि ज्ञानी जन किसी भी उपलब्धि का श्रेय प्रकृति को ही देते हैं, खुद को उससे अलग ही किए रखते हैं, ताकि अंहकार घनीभूत न हो।
इस सूत्र के एक मायने ये भी हैं कि जैसे ही फल की कामना लिए हुए हम कर्म करते हैं तो अपेक्षित फल न मिलने पर दुखी होते हैं। जो भी फल हो उसके लिए जैसे ही अपने आपको मन के स्तर पर तैयार कर लेते हैं, तो पीड़ा नहीं होती।
जरा और गहरे में जाएं। वह एक अलग ही तल है। चूंकि हम सांसारिक प्राणी हैं, इस कारण जीवन यापन के लिए कर्म करना जरूरी है, मगर वह हम कर्तव्य की तरह, ड्यूटी की तरह करें। उसके प्रति आसक्ति न रखें तो जीते जी हम मुक्ति की राह पर चल पड़ेंगे। यह अवस्था तब आएगी, जब हम अपने आपको थर्ड पर्सन की तरह देखना शुरू कर देंगे। ऐसे जैसे हम अपने आपको अपने से पृथक देखना शुरू कर दें। इसे इस तरह से समझें। मानो हमारा नाम राम है। तो जब भी हम कुछ करें तो यह जाने कि राम हमसे अलग है। राम रो रहा है, राम हंस रहा है, राम दौड़ रहा है, हम तो दृष्टा मात्र हैं। यह विधि जगत में रहते हुए जगत से अलग रहना सिखाती है। हालांकि यह है कठिन, मगर कदाचित गीता का सूत्र इसी दिशा में हमें ले जाना चाहता है।

-तेजवानी गिरधर
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