क्या कोरोना से निपटने के लिए सलाहकार समिति की बनाने की जरूरत है?

तेजवानी गिरधर
अजमेर। अगर रेलवे म्यूजियम में रखे गए खानाबदोश लोगों में कोरोना संक्रमण का मसला नहीं होता तो अजमेर जिला भी भीलवाड़ा की तरह एक मॉडल बनने जा रहा था। उसका सारा क्रेडिट जिला कलेक्टर व जिला पुलिस अधीक्षक को मिलता। बेशक उन्होंने जिस तरह से लॉक डाउन को सख्ती से लागू करवाया, उसी का परिणाम रहा कि अजमेर में संक्रमण को रोकने में बड़ी सफलता हासिल हुई। त्वरित निर्णय लेने की मिसाल देखिए कि जैसे ही खारीकुई में एक मरीज पकड़ में आया, तुरंत चार थाना क्षेत्रों कफ्र्यू लगा कर डोर-टू-डोर सर्वे शुरू करवा दिया। मरीज व उसके परिजन जयपुर भेज दिया गया, जो कि बाद इलाज से नेगेटिव की श्रेणी में आ गए। काफी समय तक कोई नया मरीज सामने न आने से ऐसा लगने लगा कि अजमेर कोरोना से अप्रभावित रह जाएगा। कुछ न्यूज चैनल वाले तो अजमेर को भी भीलवाड़ा की तरह मॉडल बताने लगे।
अजमेर इस कारण भी एक मॉडल है, चूंकि पूरे राजस्थान में अजमेर की ऐसा जिला है, जहां हजारों की तादाद में वाहन सीज किए गए। बड़े पैमाने पर चालान काटे गए, जिससे सरकार को अच्छी खासी आय हुई। लेकिन अकेले रेलवे म्यूजियम वाली घटना से सारा गुडग़ोबर कर दिया। इसने निश्चिंत हो चुके अजमेर को चिंता में डाल दिया है। चूंकि यह किसी न किसी स्तर पर लापरवाही का परिणाम है, इस कारण प्रशासन निशाने पर आ गया है। अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत ने तो सवाल ही खड़ा कर दिया है कि म्यूजियम के छोटे हॉल में किसके आदेशों पर एक साथ 258 लोगों को रखा गया? यह हॉल 50 गुणा 70 वर्ग फीट का है, जिसमें 180 लोग ही आ सकते हैं और उन्हें भी सोशल डिस्टेंसिंग से रखा जाना नामुमकिन है। म्यूजियम में इन लोगों की भोजन व्यवस्था और अन्य व्यवस्थाएं किसने देखीं? उनके इन सवालों को भले ही राजनीतिक माना जाए, मगर जहां तक सवालों की ग्रेविटी का प्रश्र है, वे जवाब के लिए मुंह बाये खड़े हैं।
जिले के प्रथम नागरिक व प्रशासन के बीच मतभिन्नता अच्छे संकेत नहीं दे रही। जन प्रतिनिधियों को विश्वास में लिए बिना फूड पैकेट बंद करने पर विरोध में उतरे मेयर सहित पार्षदों की गिरफ्तारी की नौबत आना भी कहीं न कहीं तालमेल का अभाव दर्शाता है। विपक्ष ही नहीं, कांग्रेस भी प्रशासन की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर चुकी है। प्रशासन व मीडिया के बीच भी सामंजस्य की कमी नजर आई, जिसके चलते सात नए पोजीटिव की रिपोर्ट को लेकर तनिक तल्खी उभर कर आई। ये तो अच्छा हुआ कि दूसरे ही दिन प्रशासन ने प्रेस वालों को बुलवा कर खुल कर बात की व तालमेल की जरूरत पर जोर दिया। वैसे सच्चाई है लॉक डाउन की अब तक की अवधि में मीडिया ने प्रशासन का पूरा साथ दिया है। मीडिया के ऐसे रुख का ही परिणाम ये है कि जैसे ही गहलोत ने जुबान खोली, उसे खबरों में तो स्थान दिया, मगर साथ ही ये नसीहत भी दे डाली कि वे ऐसे समय में विवाद करने की बजाय प्रशासन का सहयोग करें। उन पर ये दोष भी मढ़ा जा रहा है कि यदि उन्हें अव्यवस्थओं की जानकारी थी तो पहले क्यों नहीं बोले? कैसी विडंबना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में आज सवाल उठाने पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। यदि सवालों को ही दफना दिया जाएगा तो पारदर्शिता ही समाप्त हो जाएगी। यह ठीक है कि मौजूदा समय इमरजेंसी जैसा है, जिसमें लोकतंत्र के नाम पर अधिक छूट नहीं दी जा सकती, मगर सब कुछ एक तरफा चलता रहा तो प्रशासन अपनी ड्यूटी ही करता रह जाएगा और जमीन पर समस्याओं का अंबार लग जाएगा। सच तो ये है कि लॉक डाउन की कामयाबी अपनी जगह है, मगर धरातल पर आर्थिक हालात बहुत खराब हो चुके हैं। यह भी सही है कि जिन पर गवर्न करने की जिम्मेदारी है, उन्हें ही बेहतर पता है कि क्या छूट दी जानी चाहिए और क्या नहीं, चूंकि बाद में अगर कुछ गड़बड़ हुई तो सबसे पहले उनका ही गला नापा जाएगा। फिर भी जनता व व्यापारियों के किन समस्याओं से रूबरू होना पड़ रहा है, वह भी पक्ष उभर कर आना चाहिए। हो सकता है मेरी सोच गलत हो, मगर मेरा सवाल ये है कि क्या ऐसे कठिन समय में तालमेल के लिए होता कि प्रशासन एक सलाहकार समूह बनाता या अब बना ले, जिसमें जनप्रनिधियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व व्यापारिक संगठनों के चुनिंदा व्यक्ति शामिल किए जाएं। कई वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी व विशेषज्ञ सेवानिवृत्ति के बाद अजमेर में ही निवास कर रहे हैं। उन के अनुभव का लाभ भी लिया जा सकता है। इसमें न तो किसी के छोटा-बड़ा होने और न ही शर्म की कोई बात है। सरकार व प्रशासन को जनता से सीधे जुड़े रखने के लिए ही तो हमारे यहां विभिन्न स्तरों पर सलाहकार समितियां बनाई जाती हैं। हम सब की जानकारी में है कि जब स्मार्ट सिटी की बात आरंभ हुई थी तक संभागीय आयुक्त ने सुझावों के लिए अजमेर के बुद्धिजीवियों को जोडा था। उस वक्त कोई संकट नहीं था। आज तो हम परेषानी में हैं। इस वक्त ऐसी पहल की ज्यादा जरूरत है।
इसमें कोई संशय नहीं कि जिला प्रशासन पूरी ईमानदारी के साथ काम कर रहा है, नियमों की सख्ती से पालना भी करवा रहा है, मगर धरातल के सच को ठीक से जानने के लिए ऐसे समूह की बेहद जरूरत है। बेशक प्रशासन के पास ही अंतिम निर्णय लेने का अधिकार है, मगर कम से कम उसके उन निर्णयों का धरातल धरातलीय समस्याओं की बुनियाद पर टिका होगा। इसका दूसरा लाभ ये होगा कि बार-बार मतभिन्नता की जो स्थिति आई है, वह उत्पन्न ही नहीं होगी। इतना ही नहीं किसी भी छोटे से छोटे गलत निर्णय का पूरा ठीकरा प्रशासन पर नहीं फोड़ा जा सकेगा। उस पर राजनीति भी नहीं की जा सकेगी।
-तेजवानी गिरधर
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