अखबार के दफ्तर को छूकर बन गया खबरनवीस!

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाती है। यह सरकार व आमजन के बीच सेतु का काम करती हैं। न केवल जमीनी हकीकत से सत्ता को रूबरू कराती है, अपितु उसे आइना दिखाने का भी काम करती है। ऐसे में इसने एक शक्ति केन्द्र का रूप अख्तियार कर लिया है। पत्रकार को प्रशासन व सोसायटी में अतिरिक्त सम्मान मिलता है। यानि के पत्रकार ग्लेमर्स लाइफ जीता है। किसी जमाने में पत्रकारिता एक मिशन थी, मगर अब ये केरियर भी बन गई। इन्हीं दो कारणों से इसके प्रति क्रेज बढ़ता जा रहा है।
जहां तक केरियर का सवाल है, सिर्फ वे ही पिं्रट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में टिक पाते हैं या स्थान बना पाते हैं, जो एकेडमिक बेस रखते हैं, इसके प्रति गंभीर होते हैं और प्रोफेशनल एटीट्यूड रखते हैं। बाकी के केवल रुतबा बनाने के लिए घुस गए हैं। वे जहां-तहां से आई कार्ड हासिल कर लेते हैं और उसे लेकर इठलाते हैं। उन्हें न तो इससे कुछ खास आय होती है और न ही उसकी दरकार है। ये ही फर्जी पत्रकार माने जाते हैं। मगर कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने इसे आजीविका का जरिया समझ लिया है। न तो उन्हें कुछ आता-जाता है और न ही उनको नियमित आय होती है। ऐसे में वे ब्लैकमेलिंग करके गुजारा करते हैं।
ज्ञातव्य है कि जैसे ही सरकार व प्रशासन के संज्ञान में आया है कि फर्जी व ब्लेकमेलर पत्रकारों एक जमात खड़ी हो गई है, उसने पर इन अंकुश लगाने की कोशिश भी शुरू कर दी है। पत्रकारों के संगठन भी इनको लेकर चिंतित हैं, क्योंकि इस जमात ने पत्रकारिता को बहुत बदनाम किया है।
लंबे समय तक पत्रकारिता करने के चलते मुझे इस पूरे गड़बड़झाले की बारीक जानकारी हो गई है। उस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। आज एक ऐसा उदाहरण पेश कर रहा हूं, जो कि फर्जी पत्रकारिता की पराकाष्ठा है।
हुआ यूं कि कुछ साल पहले दैनिक न्याय घराने के श्री ऋषिराज शर्मा ने न्याय सबके लिए के नाम से नया अखबार शुरू किया। उन्होंने स्टाफ की भर्ती के लिए आवेदन मांगे। मुझे बुला लिया इंटरव्यू के लिए। छोटी-मोटी कई रोचक घटनाएं हुईं, मगर उनमें से सबसे ज्यादा दिलचस्प वाकया बताता हूं। एक युवक आया कि मुझे रिपोर्टर बनना है। असल में उसे कोई अनुभव नहीं था। बिलकुल फ्रैश था। मैने उससे कहा कि ऐसा करो, पहले कुछ छोटा-मोटा लेख या समाचार बना कर आओ, ताकि यह पता लग सके कि आपको ठीक से हिंदी आती भी है या नहीं। उसने कहा कि ठीक है, कल आता हूं। वह नहीं आया। यानि कि वह अखबार के दफ्तर को छूकर गया। मैं भी भूल-भाल गया। कोई छह बाद अज्ञात नंबर से एक फोन आया। उसने अपना नाम बताते हुए कहा कि आपको याद है कि मैं आपके पास पत्रकार बनने आया था। मैंने दिमाग पर जोर लगाया, तो याद आया कि इस नाम का एक युवक आया तो था। उसने बड़े विनती भरे अंदाज में कहा कि प्लीज मेरी मदद कीजिए। मैने पूछा-बोलो। उसने कहा कि वह क्लॉक टॉवर पुलिस थाने में खड़ा है। मोटरसाइकिल के कागजात नहीं होने के कारण उसे पकड़ लिया है। उसने पुलिस से कहा है कि वह पत्रकार है। पुलिस ने उसे वेरिफिकेशन कराने को कहा तो उसने कह दिया कि वे न्यास सबके लिए का पत्रकार है। प्लीज, आप उनसे कह दीजिए कि मैं आपके अखबार में काम करता हूं। ओह, ऐसा सुनते ही मेरा तो दिमाग घनचक्कर हो गया। खैर, मैने उसे न केवल डांटा, बल्कि साफ कह दिया कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। आप कल्पना कर सकते हैं कि ये मामला तो उसके पकडे जाने का है, न जाने उसने कितनी जगह अपने आपको पत्रकार के रूप में पेश किया होगा। बाद में सोचने लगा कि कैसा जमाना आ गया है। जिसने पत्रकारिता का कक्का भी नहीं सीखा, वह पत्रकार बन कर घूम रहा है। जो किसी अखबार की बिल्डिंग को मात्र छू कर आ गया, वही पत्रकार कहलाने लगा है। फर्जीवाड़े की इससे ज्यादा पराकाष्ठा नहीं हो सकती।
यह तो महज एक उदाहरण है। इस किस्म के कई पत्रकार हैं शहर में, जो किसी पत्रकार के मित्र हैं और मौका देखते ही पत्रकार बन जाते हैं। होता ये है कि वे पत्रकारिता तो बिलकुल नहीं जानते, मगर पत्रकारिता जगत के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं। इस कारण किसी से बात करते हुए यह इम्प्रेशन देते हैं कि वे पत्रकार हैं। ऐसे पत्रकार भी हैं, जिन्होंने महिना-दो महिना या साल-दो साल शौकिया पत्रकारिता की, उसका फायदा उठाया और अब कुछ और धंधा करते हैं, मगर अब भी पत्रकार कहलाते हैं। इस किस्म के पत्रकारों की जमात ने न केवल पत्रकारिता के स्तर का सत्यानाश किया है, अपितु बदनाम भी बहुत किया है।
सोशल मीडिया के जमाने में जमाने में पत्रकारिता टाइप की एक नई शाखा फूट पड़ी है। यह कोरोना की तरह एक वायरस है, जो यूट्यूब, फेसबुक, वाट्स ऐप पर वायरल हो गया है। ब्लॉगिंग तो फिर भी और बात है, मगर यह खेप दो-चार पैरे लिख कर मन की भड़ास निकाल रही है। कई नए यूट्यूब न्यूज चैनल शुरू हो चुके हैं। इन्हीं की वैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार संगठनों को समझ नहीं आ रहा कि इन्हें पत्रकार माने या नहीं, चूंकि वे कर तो पत्रकारिता ही रहे हैं, अधिकृत या अनधिकृत, यह बहस का विषय है। प्रशासन ने तो इन्हें मानने से इंकार कर ही दिया है। इसकी बारीक पड़ताल फिर कभी।

-तेजवानी गिरधर
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