पुरुष प्रधान, लेकिन स्त्री विशिष्ट

अनादि काल से पुरुष की प्रधानता के संबंध में पिछले दिनों जब एक आलेख लिखा तो एक पत्रकार साथी श्री बलवीर सिंह ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि भले ही पुरुष प्रधान है, मगर महिला को प्रकृति ने अतिरिक्त शक्तियां दी हैं, जो कि पुरुष में नहीं हैं। उस लिहाज से स्त्री विशिष्ट है। उनकी बात में दम है। मुझे लगा कि इस पर भी बात होनी चाहिए।
यह बात सही है कि महिला को दूसरे दर्ज पर रखा गया है, मगर उसके भीतर की जो जीवनी शक्ति है, वह उसे पुरुष की तुलना में पहला दर्जा प्रदान करती है। पुरुष कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकता। आगे होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
रहा सवाल पुरुष की प्रधानता का तो उसकी वजह है। जब भी कोई दो वस्तुएं होंगी तो उनको गिनते समय कोई एक पहले और दूसरी बाद में गिनी जाएगी। दोनों को एक साथ गिनने का तो कोई उपाय ही नहीं है। चूंकि पुरुष प्रत्यक्षत: अपेक्षाकृत अधिक बलवान है, इस कारण उसकी गिनती पहले स्थान पर हो गई है। सच ये है कि पुरुष का शक्तिवान होना मुखर है, मगर स्त्री में जो शक्ति है, वह अंतर्मुखी है। दिखती भले न हो, मगर होती है जरूर।
माना जाता है कि स्त्री की छठी इंद्री पुरुष की तुलना में अधिक सक्रिय होती है। उसे पुरुष के मुखमंडल की रेखाएं देखने मात्र से, देखने के ढंग से, भाव भंगिमा से, बात करने के तरीके मात्र से पता लग जाता कि सामने वाले की मंशा क्या है। चूंकि उसमें पुरुष की तुलना में अधिक सहनशीलता होती है, इस कारण मानसिक रूप से प्रबल होती है और कष्टों को आसानी से झेल जाती है। उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती है। जिजीविषा अधिक होती है। यही वजह है कि दुनिया में विदुरों की तुलना में विधवाओं की संख्या अधिक है। पुरुष की तुलना में वह लंबा जी लेती है। वह पुरुष की तुलना में अधिक आध्यात्मिक भी होती है। सच तो ये है कि संस्कृति की वास्तविक संवाहक स्त्री ही है। आज अगर हमारी सामाजिक परंपराएं, त्यौहार, व्रत इत्यादि जीवित हैं, तो उसकी एक मात्र वजह स्त्री है। ऐसी मान्यता है कि स्त्री पुरुषों की तुलना में अधिक ईमानदार होती है। इसी कारण नौकरी में उसे प्राथमिकता मिलती है। पुरुष कितना ही बहादुर हो, मगर जब जीवन के संघर्ष में टूटता है तो स्त्री ही उसका सहारा बनती है।
बहरहाल, इन सब क्षमताओं के बाद भी पुरुष प्रधान है। पुरुष से बराबरी का जो आंदोलन है, वह इस कारण उपजा क्योंकि पुरुष ने प्रधानता का बेजा फायदा उठा कर महिला का जम कर दमन किया। वह सहन करती गई। सहन करती गई। लेकिन आखिरकार महिला को मु_ी तानने की जुर्रत करनी पड़ी। बेशक कानून के जरिए और सामाजिक आंदोलन की वजह से उसे अब बराबरी के अवसर मिलने लगे हैं, मगर वह भी जानती है कि नैसर्गिक रूप से बराबरी हो नहीं पाएगी। इस बारे में एक जगह ओशो ने कहा है कि बराबरी के प्रयास में उसकी मौलिकता खोने का खतरा है। अगर बराबरी पर आ भी गई तो ऑरिजनल तो नहीं होगी। कॉपी तो कॉपी ही रहेगी।
मूलत: दोनों के बीच बराबरी की सोच ही गलत है। दोनों भिन्न हैं। बराबर हो ही नहीं सकते। बराबर करने की कोशिश भी बेमानी है। दोनों अपने आप में विशिष्ट हैं, मगर अधूरे हैं। वस्तुत: वे एक इकाई के आधे-आधे हिस्से हैं। मिलने पर पूरे होते हैं। अर्धनारीश्वर की कल्पना का आधार भी यही है। जैसे एक बॉल को आधा-आधा काट दिया जाए। दोनों आधे-आधे हिस्से अपने आप में अधूरे हैं। जब दोनों को मिला दिया जाता है तो पूरी बॉल बन जाती है।
प्रसंगवश यहां चाणक्य ने उस श्लोक पर भी नजर डाल लें, जिसमें स्त्री के गुणों की जानकारी दी गई है। श्लोक है:-
स्त्रीणां द्विगुण आहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा,
साहसं षड्गुणं चैव कामश्चाष्टगुण: स्मृत:

अर्थात महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा दोगुना खाना खा सकती हैं। पुरुषों के मुकाबले उन्हें ज्यादा भूख लगती है। महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा चार गुना अधिक शर्मीली होती हैं। शास्त्रों में भी लज्जा को स्त्री का गहना माना गया है। महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा छह गुना अधिक सहनशील होती हैं। महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा काम वासना आठ गुना अधिक होती है। कदाचित यही उसकी जीवनी शक्ति का राज है।
कुल जमा बात ये है कि प्रकृति सदैव संतुलन करती है। अगर किसी मामले में पुरुष को अधिक बलवान बनाया है कि किसी मामने में महिला को अधिक शक्तिवान किया है।
महिला कितनी सहनशील, साहसी व अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो सकती है, इसका साक्षात अनुभव मैने निजी जीवन में मीडिया फोरम की महासचिव डॉ श्रीमती रशिका महर्षि में किया। उन्होंने अपने पति श्री दिलीप महर्षि को किडनी डोनेट करने के कष्टसाध्य कर्म को बहुत दिलेरी के साथ हंसते-हंसते किया व कभी हिम्मत नहीं हारी।

-तेजवानी गिरधर
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