शुक्रिया कहीं उऋण होने की कीमिया तो नहीं?

किसी ने अगर हमारी मदद की है तो उसका शुक्रिया अदा करना और धन्यवाद देने का चलन है। इसी प्रकार कोई त्रुटि होने पर सॉरी कहने का भी रिवाज है। यह शिष्टाचार का अंग है। क्या शिष्टाचार के इतर भी इनका कोई महत्व है? कहीं ये ऋण से उऋण होने की कीमिया तो नहीं? यह सवाल अर्से से दिमाग में कुलबुलाता रहा है।
जैसे हिंदू धर्म में भी कोई मनौति पूरी होने पर भगवान को धन्यवाद देने के लिए छोटा-मोटा अनुष्टान करने की प्रथा है, उसी प्रकार इस्लाम में तो बाकायदा शुक्राने की नमाज अदा की जाती है या शुक्राने की फातेहा दी जाती है। मैने ऐसे प्रकरण देखे हैं कि पुत्र के परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसे प्रसंग में भी मुस्लिम परिवार शुक्राने की फातेहा देते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे जैन दर्शन में कर्म का बंधन होने का प्राकृतिक विधान है, तो शुक्रिया अदा करना उस बंधन से मुक्त होने की दिशा में उठाया गया कदम है।
यह ठीक है कि आम जीवन में किसी को धन्यवाद देना शिष्टाचार की श्रेणी में आता है, मगर क्या भगवान के साथ भी औपचारिक शिष्टाचार निभाया जाता है। हो सकता है कि आम आदमी कोई उपकार करने की एवज में धन्यवाद की अपेक्षा करता हो। हो सकता है धन्यवाद देने के बाद आगे भी उपकार हासिल होने का मार्ग खुला रखने की अपेक्षा से ऐसा किया जाता हो। लेकिन क्या ईश्वर के साथ भी ऐसा है? क्या भगवान को भी अपेक्षा रहती है? क्या इससे उसको कोई फर्क पड़ता है? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है। अहोभाव प्रकट करना हमारा अपना विषय है। अहोभाव जागना ही चाहिए। दुआ भी तो उसी का रूप है। हम मानते हैं न कि अपने से बड़े का सम्मान करने अथवा उनकी सेवा करने पर बड़े के मन से दुआ निकलती है। यानि कि यह क्रिया की प्रतिक्रिया है। साथ ही इससे किसी भी काम का वर्तुल पूरा होता है। अनुष्ठान में भी यही होता है। बाकायदा पूर्णाहुति दी जाती है। आपने देखा होगा कि कई बुजुर्ग महिलाएं कोई काम होने की कामना से अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती हैं। काम पूरा हो जाने पर ही गांठ खोलती हैं और प्रसाद चढ़ाती हैं। वह भी धन्यवाद देने की प्रक्रिया है।
नहीं पता कि शुक्रिया अदा करने से हम उऋण होते हैं या नहीं, मगर मुझे लगता है कि ऐसा करने से हम एक किस्म के मानसिक बोझ से तो मुक्त होते ही हैं। जैसे कोई गलती होने पर सॉरी कहने से कहीं न कहीं हम उस दोष से मुक्त सा महसूस करते हैं, कि हमने माफी मांग ली और सामने वाले सॉरी स्वीकार कर ली।
परायों का शुक्रिया अदा करना व सॉरी फील करना सामान्य शिष्टाचार है, लेकिन यह शिष्टाचार मित्रता में करने की जरूरत नहीं मानी जाती। कहते हैं कि दोस्ती में न थैंक यू और न ही सॉरी। इसका अर्थ हुआ कि दोस्ती में किया गया उपकार व अनजाने में हुई चूक की गिनती नहीं की जाती। वैसे भी कहा जाता है न कि दोस्ती अर्थात जहां दो अस्त हो गए, एक ही हो गए। तो फिर हिसाब-किताब कैसा?
मेरा ऐसा मत है कि शुक्रिया अदा करना या धन्यवाद या साधुवाद देना सदाचरण में विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता अपने आप में बहुत बड़ा गुण है। यह अहम भाव से मुक्त कराता है। साथ ही इससे ऋण से उऋण होने की भाव अवस्था बनती है। उससे मानसिक शांति मिलती है। मेरा सुझाव है कि हर काम के साथ शुक्रिया अदा करना चाहिए। भोजन कर चुकने पर अन्न देवता का, पानी पी चुकने पर जल देवता का, फल खा चुकने पर वृक्ष देवता का, किसी पुष्प की गंध का आनंद लेने के बाद पुष्प का, किसी वृक्ष की छाया का लाभ लेने के बाद उस वृक्ष का मन ही मन धन्यवाद करना चाहिए। यह बहुत सुकून देगा। आपके जीवन में आनंद भर जाएगा। करके देखिए।

-तेजवानी गिरधर
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