झूठ बोलने से कोई पाप नहीं लगता?

सत्य की बड़ी महिमा है। इतनी कि उसके लिए बाकयदा एक सूत्र है:- सत्यमेव जयते। अर्थात सत्य की सदा जीत होती है। सत्य को ईश्वर का ही रूप माना जाता है। इसीलिए यह शिक्षा दी जाती है कि सत्य बोलो, झूठ मत बोलो। झूठ बोलने से पाप लगता है। सवाल उठता है कि क्या झूठ बोलने से वाकई पाप लगता है? क्या विधि का कोई विधान है, जिसके तहत झूठ नामक पाप का दंड मिलता हो? बेशक सत्य के मार्ग पर चलने से आत्मशक्ति मजबूत होती है और असत्य के मार्ग पर चलने से न केवल प्रकृति अपितु सामाजिक व्यवस्था में दंड का भागी होना होता है, लेकिन क्या झूठ बोलने से भी कोई अपराध कारित होता है, जिसका प्रकृति दंड देती है? क्या यह सही है कि झूठ बोलने से कौआ काटता है, जैसा कि एक कहावत में कहा गया है। इस पर तो एक फिल्मी गीत भी बना हुआ है:- झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो।
गहन चिंतन-मनन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि झूठ बोलने प्राकृतिक रूप से कोई पाप नहीं लगता। प्रकृति इसका हिसाब भी नहीं लगाने बैठी कि उसे पाप की श्रेणी में डाल कर आपको दंड दे। असल में इसका कोई विधान नहीं है। वस्तुत: होता यह है कि जब भी हम झूठ बोलते हैं तो हमें पता होता है कि सत्य क्या है और हम निहित स्वार्थवश झूठ बोल रहे हैं। चूंकि झूठ बोलने का स्पष्ट भान होता है तो हमारे भीतर ही अपराध बोध जागृत होता है। यह बोध हमारी आत्मशक्ति को कमजोर करता है। आमतौर पर झूठ बोलने वाले के भीतर एक ग्रंथी बन जाती है, जो उसे कचोटती रहती है। उसका सुख-चैन छिन जाता है। कई लोग तो बात-बात में झूठ बोलने की आदी हो जाते हैं। अगर हम प्राकृतिक व्यवस्था में झूठ बोलने को पाप की श्रेणी में डालें तो कह सकते हैं कि झूठ बोलने से पाप लगता है। मगर सच ये है कि ऊपर का कोई विधान नहीं, बल्कि यह हमारे भीतर का विधान है। भीतर की रासायनिक क्रिया है।
झूठ बोलने का परिणाम ये होता है कि कई बार तो एक झूठ बोलने के बाद उसे छिपाने के लिए एक के बाद एक झूठ बोलने पड़ते हैं। इससे अपराध बोध और घनिभूत हो जाता है। दूसरा ये कि झूठ बोले हुए को याद भी रखना पड़ता है। सत्य की चूंकि एक ही होता है, इस कारण वह सदा जेहन में रहता है। अत: यथा संभव सत्य ही बोलना चाहिए। अगर आप सदा सच ही बोलते हैं तो आपको याद रखने की कोई जरूरत नहीं है। झूठ बोलने पर यह ख्याल रखना होता है कि पहले क्या झूठ बोला था। अमूमन वह कठिन हो जाता है और अंतत: वह पकड़ा जाता है। कहने का यही तात्पर्य है कि जब तक बहुत जरूरी न हो, झूठ नहीं बोलना चाहिए।
हां, कई ऐसे भी मौके भी आते हैं, जबकि झूठ बोलना अनिवार्य हो जाता है। इस सिलसिले में एक कहानी आपने सुनी होगी। एक सत्पुरुष के सामने से गाय दौड़ती हुई गुजरी। एक कसाई उसके पीछे भागता हुआ आया और उस सत्पुरुष से पूछा कि गाय किस दिशा में गई है? अगर वह सच बोलता तो कसाई उस गाय तक पहुंच जाता और उसकी मौत सुनिश्चित थी, जिसके पाप का भागी वह भी होता, क्योंकि गाय की मौत में उसकी भी तनिक भूमिका होती। सत्परुष ने कुछ सोच कर झूठ बोला और कसाई को गलत दिशा बता दी। और इस प्रकार गाय मरने से बच गई। हालांकि सत्पुरुष सदा सच ही बोला करते थे, मगर उन्हें दूसरे की भलाई के लिए झूठ बोलना पड़ा। इस प्रसंग में झूठ बोलना उचित ही था। हालांकि सत्परुष को झूठ बोलने से अपराध बोध हुआ, मगर उसके गुरू ने बताया कि तुम्हारे एक छोटे से झूठ से गाय बच गई, इसलिए तुम्हें मलाल नहीं होना चाहिए। झूठ बोलने से तुम्हें जितनी ग्लानी हो रही है, उससे कई गुना अधिक गाय के बच जाने का पुण्य तुम्हें हासिल होगा। अर्थात कभी भलाई के लिए झूठ बोलना पड़ जाए तो झिझकना नहीं चाहिए। तब झूठ बोलना ही धर्म है।

-तेजवानी गिरधर
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