देश निर्माण का वैचारिक दृष्टिकोण ही साहित्य की देन – विधायक आक्यां

’हिंदी साहित्य का समाज और लोकतंत्र पर प्रभाव विषयक साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन’
’जिले भर के साहित्यकारों की रही भागीदारी, एक स्वर मे समाजोपयोगी साहित्य की पैरवी’

चित्तौडगढ़। जब साहित्य, समाज और लोकतंत्र की बाते सार्वजनिक मंच पर होगी तो निःसंदेह हम वैचारिक रूप से देश निर्माण की सोच को आगे लें जा पाएंगे! साहित्य की समृद्ध परम्परा कि मशाल को जलाये रखने में राजस्थान मीडिया एक्शन फोरम के प्रयास अनुकरणीय हैं! चित्तौड़गढ़ विधायक चंद्रभान सिंह आक्यां रविवार सांय होटल ‘द ग्रेंड चित्तौड़‘ में राजस्थान मीडिया एक्शन फोरम द्वारा ’हिंदी साहित्य का समाज और लोकतंत्र पर प्रभाव’ विषयक साहित्यिक परिचर्चा को मुख्य अतिथि पद से सम्बोधित कर रहे थे। विधायक आक्यां ने कहा की श्रेष्ठ साहित्यकार कभी भी पुरस्कार के मोह में साहित्य सृजन नहीं करता हैं, उसकी दृष्टि समाज मे सकारात्मक परिवर्तन लाने की होती हैं । समाज को चाहिए की वो उसकी सार्थक रचना का स्वमूल्यांकन कर उसे सम्मानित करें ताकि आने वाली पीढ़ी उससे प्रेरणा लें सके ।
साहित्यिक परिचर्चा में दक्ष पैनल के रूप में समाजशास्त्री डॉ. के. सी. शर्मा, महाविद्यालय प्राचार्य डाॅ. गौतम कूकड़ा, वरिष्ठ साहित्यकार शिव मृदुल और पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. सुशीला लड्ढा ने साहित्य, समाज और लोकतंत्र विषयक कई पक्षों पर बेबाक अपनी बात रखी।
युवा पीढ़ी ने साहित्य पढ़ना छोड़ दिया: डाॅ. के.सी.शर्मा
समाजशास्त्री डॉ. के. सी. शर्मा ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को साहित्य के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए कहा कि युवा पीढ़ी ने साहित्य पढ़ना छोड़ दिया हैं और शास्त्रीय पुस्तकों के अध्ययन के बिना समाज अभिप्रेरित साहित्य का सृजन संभव नहीं। डॉ. शर्मा ने साहित्य के नाम पर फूहड़ साहित्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पैनी और सूक्ष्म दृष्टि ही संवेदनशील साहित्य की रचना कर सकती हैं। साहित्य सृजन को वामपंथी और दक्षिण पंथी विचारधारा में बाँटने के सवाल पर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि साहित्य को लेकर इस प्रकार कि विचारधाराएं समाज को बाँटने का ही काम करती हैं जो कभी भी साहित्य का उद्देश्य हो ही नहीं सकता।
लोकतंत्र की दशा और दिशा निर्धारण में लेखन की भूमिका: डाॅ. गौतम कूकड़ा
लोकतंत्र में साहित्य की भूमिका के प्रश्न पर महाराणा प्रताप काॅलेज के प्राचार्य प्रो. गौतम कूकड़ा ने कहा की लोकतंत्र की दशा और दिशा निर्धारण में लेखन की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। लोकतंत्र में परिपक्व साहित्य सदैव मजबूत स्तम्भ के रूप में खड़ा रहा हैं!

शाश्वत मूल्यों की स्थापना ही साहित्य: शिव मृदुल’
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.शिव मृदुल ने परिचर्चा को गति देते हुए साहित्य के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। मृदुल ने कहा कि साहित्य का मतलब ही शाश्वत मूल्यों की स्थापना हैं। मानव मात्र की सेवा भावना के साथ जीवन मूल्यों को संप्रेषित करने वाली रचना ही कालजयी हो सकती हैं और सही अर्थो में वो ही साहित्य हैं।
शुभ एवं श्रेयस की स्थापना ही साहित्य हैं: डाॅ. सुशीला लढा
डॉ. सुशीला लड्ढा ने कार्यक्रम की शुरुआत में मंचासीन पैनल का परिचय देते हुए कार्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की। डॉ. लड्ढा ने कहा कि शुभ एवं श्रेयस की स्थापना ही साहित्य हैं। कामायनी और रामचरित मानस के जरिये डॉ. लड्ढा ने साहित्य के लोकहित पक्षो को स्पष्ट किया।
पुस्तकें रहेगी तो हम भी रहेंगे: डाॅ. पाण्डेय
मेवाड़ विश्वविद्यालय की हिंदी विभागध्यक्ष डॉ. शुभदा पाण्डेय ने कहा कि याद रखिये पुस्तकें रहेगी तो हम रहेंगे। गर्व कीजिये कि हमारे पास पुस्तकें हैं। चिंता का विषय हैं कि साहित्य और समाज आज हाशिये पर जा रहा हैं। साहित्यकारों के द्वारा मतभेद के कारण पुरस्कार लौटाने की प्रवृति को गलत करार देते हुए डॉ. पाण्डेय ने कहा की ये उस सृजन का अपमान हैं जिसे समाज ने स्वीकार किया हैं।
साहित्य समाज का दर्पण है: अनिल सक्सेना
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अनिल सक्सेना ने कहा कि साहित्य समाज का दर्पण है । सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों का यर्थाथ चित्रण ही साहित्य है। उन्होने कहा कि यही सत्य है कि साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है।
परिचर्चा में भागीदारी करते हुए डॉ. रमेश मयंक ने केसरीसिंह बाहरट की रचना चेतावनी का चुंगट्या को राजसत्ता के विरुद्ध लोकतंत्र का पहला हस्तक्षेप बताया। चित्तौड़गढ़ को साहित्य सृजन और साहित्यकारों की भूमि बताते हुए वरिष्ठ साहित्यकार योगेश जानी ने दुःख व्यक्त किया कि समाज में साहित्यिक प्रतिभाएँ बहुत हैं पर परखने वाले कम हो गए हैं। लेखक और अध्यापकों ने ही पढ़ना छोड़ दिया हैं, इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती हैं ।
कई भाषाओं के साहित्य को अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले डॉ. मुन्ना लाल डाकोत ने कहा कि पुरस्कार की लालसा साहित्य सृजन में बाधा हैं। यदि आपको अच्छा लिखना हैं तो विषय के प्रति आपकी दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए ना की पुरस्कार के प्रति । साहित्यकार लक्ष्मीनारायण भारद्वाज ने साहित्य के संदर्भ में प्रेमचंद के कथन को रेखांकित करते हुए कहा कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली जलती मशाल हैं, अतः लोकतंत्र में उसकी भूमिका को कमतर करना संभव नहीं हैं। परिचर्चा मे पंकज झा ने विधायिका के उच्च सदन राज्यसभा और बिधान परिषद मे साहित्यकारों के मनोनयन की महत्ती आवश्यकता बताई। डॉ. सी. एल. महावर ने कहा कि मन से निकला साहित्य ही सही अर्थों मे साहित्य हैं। किसी कारण निमित्त लिखी रचना साहित्य के दायरे मे नहीं आ सकती। शिक्षक नेता तेजपाल सिंह ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन के पश्चात कवि अब्दुल जब्बार ने सरस्वती वंदना से कार्यक्रम की शुरूआत की। परिचर्चा पैनल का संचालन फोरम के संस्थापक अनिल सक्सेना ने किया । कार्यक्रम का समापनं राष्ट्रगान से हुआ ।
वरिष्ठ पत्रकार और सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पूर्व अधिकारी नटवर त्रिपाठी , वरिष्ठ साहित्यकार योगेश जानी, डॉ रमेश मयंक, मुन्ना लाल जी डाकोत, डॉ शुभदा पांडेय, नन्द किशोर निर्झर, पंकज कुमार झा, डॉ सी. एल महावर , डॉ रविन्द्र उपाध्याय, डॉ गोपाल चैधरी, विकास अग्रवाल, ब्रजेश राठौर, पत्रकार अमित चेचानी ,शिक्षाविद तेजपाल सिंह, अनिल इनाणी, डॉ आशुतोष डागा, शिक्षाविद परेश नागर, शांति सक्सेना, शीतल नागर, अखिलेश श्रीवास्तव , शाश्वत सक्सेना, जीतेश श्रीवास्तव, सुभाष तिवारी, दीपक मिश्रा, एफ.यादव, विपिन शर्मा, कृष्णा सिन्हा, श्याम सोलंकी, घनश्याम तोसावड़ा, बालमुकुंद कुमावत, शिखा, ललित नाथ, अमित श्रीवास्तव, कांति चंद्र शर्मा, राधाकिशन साहू, माया साहू, सुनील बाटु ,पद्मा पगारिया, बाल मुकुंद प्रधान, राजेश गांधी, मनोज त्रिपाठी , भरत जी व्यास,रणजीत लोट, पिन्टू विजयवर्गीय,दीपक वैष्णव आदि पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार और प्रबद्धजन मौजूद रहे।

error: Content is protected !!