वसुधैव कुटुम्बकम्” तथा “जीयो और जीने दो” की संस्कृति का केन्द्र है, भारत

वाशिंग्टन डीसी /
श्री ललित झा – 1. भौतिकता के इस युग में आपका भारतीय संस्कृति से किस प्रकार का जुड़ाव है ? आपके बारे में बताइये।
डॉ. मोक्षराज -मैं जब 16 वर्ष का हुआ, तब मेरी आत्मा में वेद पढ़ने की प्रेरणा हुई और भगवान ने मेरी प्रार्थना सुनी। सरकारी नौकरी करते हुए वैदिक वाङ~मय में एम.ए. (गोल्डमैडलिस्ट ) धर्मशास्त्र में आचार्य (गोल्डमैडलिस्ट). पीएच. डी. (वेद) 5 पुस्तकों का सम्पादन जिनमें 70 श्लोकी गीता बहुत चर्चित रही तथा संस्कृत में “स्वाध्याय पंचकम् ” पुस्तक लिखी व ईशोपनिषद् की मोक्ष टीका प्रकासित होने वाली है ।
श्री ललित झा 2. आप वेदों के विद्वान् हैं , आज के युग में वेद के विचारों से दुनियाँ का क्या भला हो सकता है ?
डॉ. मोक्षराज -वेद तीनों काल में प्रासंगिक हैं। भारत की प्राचीनतम सभ्यता व संस्कृति वेदों पर ही आधारित हैं । संसार के कल्याण के लिए आर्यावर्त्त के ऋषि मुनियों ने तप त्याग व गहन साधना का आश्रय लिया तथा वे जीवन का सर्वस्व लोक हित के लिए ही अर्पित कर गये । वैदिक परम्परा आरंभ से ही आकाश,वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वृक्ष- वनस्पति, पशु- पक्षी व समस्त भूमण्डल पर जितने जीव हैं उन सबका रक्षण,पोषण व मंगल की कामना करती है। यजुर्वेद का मंत्र है – ओ३म् द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्मशान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥अर्थात् |qलोक (सूर्य का स्थान) अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधियाँ ये सभी अपने प्राकृतिक गुणों को धारण करते हुए ऐसा संतुलन व सामर्थ्य बनाए रखें , जिससे समस्त प्राणियों को अगाध सुख शांति प्राप्त होती रहे । वनस्पतियाँ, अग्नि, विद्युत् आदि जड़ पदार्थ तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद आदि सभी योग्यताओं वाले मनुष्य सुख, शांति व आनंद को धारण करें एवं उनकी शांत अवस्था सकल भुवन में वृद्धि व समृद्धि का आधार बनें । सबके हित के लिए की गयी ऐसी प्रार्थनाएँ सभी वेदों में हैं। इन लोककल्याणकारिणी प्रार्थनाओं में किसी देश, जाति, संप्रदाय का भेदभाव नहीं है । इस प्रकार के विचारों से ही संसार का उपकार संभव है।
श्री ललित झा 3. भारत की संस्कृति आज भी क्यों प्रासंगिक है ?
डॉ. मोक्षराज -जिस आर्यावर्त्त की भूमि पर “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥” का पाठ पढ़ाया जाता हो , जिस पावन धरा पर “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।। ” की शिक्षा दी जाती हो , उस हिमालय , गंगा, वेद, उपनिषद् , दर्शन , रामायण व श्रीमद्भगवद्गीता वाले भारत का विचार सम्पूर्ण विश्व को योग के आधार से सुख-शांति ,प्रसन्नता व आनंद का रसपान क्यों न कराये ? सच तो यह है कि एकमात्र भारत के सांस्कृतिक मूल्य ही ऐसे हैं जो सम्पूर्ण भूमण्डल को अपना परिवार मानकर सबका भला कर सकते हैं तथा विश्वकल्याणकारी भावों की यह पावन परम्परा आदि काल के महर्षि ब्रह्मा से लेकर आधुनिक युग के महर्षि , महान सुधारक , वेदों के वैज्ञानिक भाष्यकार स्वामी दयानंद सरस्वती तक चली , जिन्होंने आर्यसमाज के नियम संख्या 6 में स्पष्टरूप से यह उल्लेख किया कि “संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है , अर्थात् शारीरिक , आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना ।”उन्होंने भी उसी प्राचीन ऋषि परंपरा कि पुष्टि की है इसीलिए इस नियम में वे किसी एक जाति , मत, मजहब , संप्रदाय, स्त्री , पुरुष या वर्गविशेष का संकुचित लक्ष्य नहीं रखते। परमात्मा की व्यवस्था से यह आगे भी सुरक्षित रहेगी।
श्री ललित झा 4. मोदी जी योग को बढ़ावा दे रहे हैं , इसमें उनका कोई राजनीतिक लाभ लेने का उद्देश्य है या ऋषि परंपरा में निष्ठा ?
डॉ. मोक्षराज -वेदों में प्रार्थना है कि हम पर दुष्ट अत्याचारियों का शासन न हो । धर्मात्मा ,सज्जन, श्रेष्ठ, सभ्य, सच्चरित्र, पक्षपातरहित अर्थात् न्यायकारी विद्वान् लोग ही संसार का भलीभाँति पालन पोषण कर सकते हैं , इसलिए ऐसे लोग ही शासक होने चाहियें। “अहं भूमिं अददामार्याय ” “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” आदि प्रार्थनाएँ मन्त्रांशों में स्पष्ट ध्वनित होती हैं।
वर्तमान राजनीति जहाँ एक राज्य या देश को चला रही है वहीं धर्मनीति सम्पूर्ण विश्व के शांतिप्रद संचालन के लिए अपरिहार्य है । यहाँ धर्म शब्द के प्रयोग से किसी मत संप्रदाय के विषय में नहीं समझना है। और यह भी ध्यातव्य है कि वेद किसी मत संप्रदाय विशेष के नहीं हैं , वे मानवमात्र के लिए हैं। इस संदर्भ में सरल ढंग से कहें तो धर्म उसी को समझना चाहिए , जिसमें स्वयं के उत्थान के साथ-साथ पूरी लगन ,सामर्थ्य, प्रेम व श्रद्धा से दूसरों का भला करने का निःस्वार्थ संकल्प विद्यमान हो। यही भाव रहा कि भारत सरकार ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र महासंघ के माध्यम से विश्व योग दिवस मनाए जाने की ऐतिहासिक परम्परा आरंभ करायी । क्योंकि योग से तन-मन व आत्मा का समुचित विकास होता है , योग द्वारा हम स्वयं के साथ साथ अन्यों का भला करने की मनोवृत्ति को विकसित करते हैं। कोई ऐसा करे तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है ? सबका भला करना कोई बुरी बात तो नहीं हो सकती।
श्री ललित झा 5. निश्चय ही यह भारत की पहचान के लिए उत्तम प्रयत्न है। आप इस प्रकार के रचनात्मक कार्य के लिए किसको श्रेय देंगे ?
डॉ. मोक्षराज -इस विश्वकल्याणकारी कार्य के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा 21 वीं सदी के आरंभ में विराट स्तर पर योग को प्रसिद्ध करने वाले योग ऋषि स्वामी रामदेव के पुरुषार्थ को में नमन करता हूँ ।
श्री ललित झा 6 .भारत सरकार ने आप जैसे और कितने लोग कहाँ कहाँ लगाए गए हैं ?
डॉ. मोक्षराज -इस विषय में पूरी जानकारी आप भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद , नई दिल्ली से प्राप्त कर सकते हैं फिर भी मेरे ध्यान में विभिन्न देशों में मेरे जैसे 20 से अधिक मित्र लगाए गए हैं व आगे भी लगाए जा सकते हैं ।
श्री ललित झा 7 . आपने क्या सोचा है? किस प्रकार काम करेंगे ?
डॉ. मोक्षराज -जो सोचा है उसे काम करके ही प्रमाणित करेंगे। लेकिन इतना अवश्य है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम् की विचारधारा को बढ़ाना चाहते हैं । हमें अपने पूर्वजों पर गर्व है , जिन्होंने सम्पूर्ण संसार के आरंभ में सबके लिए हितकारी संस्कृति व सभ्यताएं सँजो कर रखीं। सम्पूर्ण भूमंडल के लोग हमारे भाई बहिन हैं , यह सिखाने वाले पूर्वजों ने हमें निःस्वार्थ भाव से सबका भला करना सिखाया है । मैं तो चाहूँगा कि सम्पूर्ण विश्व के मनीषियों को उसी मूल संस्कृति की खोज में निष्पक्षता से लगना चाहिए जो सबको निर्भयता, सच्चरित्रता, सादगी, प्रकृति-प्रेम व समस्त प्राणियों में दया का भाव जागृत करती हो। जो संस्कृति सुख, आपसी प्रेम व सद्भाव से सबको जीने का अधिकार देती हो। जिस संस्कृति ने 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार बर्ष पहले सम्पूर्ण विश्वपरिवार की परिकल्पना दी।- यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् – यजुर्वेद

डॉ. मोक्षराज
संस्कृति शिक्षक,
वाशिंग्टन डीसी

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