जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले – लालबहादुर शास्त्रीजी

जानिये शास्त्री के जीवन के प्रेरणादायक संस्मरण

डा. जे.के.गर्ग
शास्त्रीजी कहते थे कि “ भष्टाचार को गम्भीरता से लें तो जरुर अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकेंगें | लोगों को सच्चा लोकतंत्र और स्वराज कभी भी हिंसा और असत्य से प्राप्त नहीं हो सकता है | जननायक शाष्त्रीजी के 114 वें जन्म दिन पर 132 करोड़ भारतियों का उनके श्री चरणों में नमन| जय जवान, जय किसान” का नारा भारतवाषियों को हमेशा शास्त्रीजी की याद दिलाता रहेगा |

बचपन में ही नन्हें लालबहादुर ने तय कर लिया कि वो कोई ऐसा काम नहीं करेगें जिससे दुसरो को नुकसान हो

छः साल का एक नाटे कद का लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया, उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी अपनी झोलियाँ भर लीं वहीं वह लड़का जो सबसे छोटा और कमज़ोर भी था सबसे पिछे रह गया और ज्योंहि उसने फूल तोडना चालू किया उसी वक्त बगीचे का माली आ पहुँचा। माली को देख कर दूसरे लड़के भाग गये किन्तु छोटा और नाटा बालक माली के हत्थे चढ़ गया। माली ने सारा गुस्सा छः साल के बालक पर निकाला और उसे बुरी तरह पीट दिया।नन्हे बच्चे ने माली से कहा – “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!” यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।” माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया। उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कनहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो। बड़ा होने पर वही बालक भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन में कूद पड़ा। एक दिन उसने लालबहादुर शास्त्री के नाम से देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया।

आत्मसम्मान के धनी-आजादी के दिवाने—-

शास्त्री जी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल में थे। घर पर उनकी पुत्री गम्भीर रूप बीमार थी, उनके साथियों ने उन्हेँ जेल से बाहर आकर पुत्री को देखने और उसकी देख भाल करने लिये आग्रह किया, शास्त्रीजी की पैरोल भी स्वीकृत हो गई, परन्तु शास्त्री जी ने पैरोल पर छूटकर जेल से बाहर आना अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध समझा ! क्योंकि वे यह लिखकर देने को तैयार न थे कि बाहर निकलकर वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में कोई काम नहीं करेंगे। अंत में मजिस्ट्रेट को शास्त्रीजी को पन्द्रह दिनों के लिए बिना शर्त छोड़ना पड़ा। वे घर पहुँचे, लेकिन उसी दिन बालिका के प्राण-पखेरू उड़ गए। शास्त्री जी ने कहा, “जिस काम के लिए मैं आया था, वह पूरा हो गया है। अब मुझे जेल वापस जाना चाहिये।” और उसी दिन वो जेल वापस चले गये।

शास्त्रीजी नहीं चाहते थे कि उनका नाम अख़बारों में छपे और लोग उनकी प्रशंसा करें

लाला लाजपत राय से लोक सेवा मंडल के सदस्य की दीक्षा लेने के बाद लाला लाजपत राय ने उनसे कहा “लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं यथा सफेद सगंमरमर और नीव में लगाये गये साधारण पत्थर, संगमरमर के पत्थरों को दुनिया देखती है और उनकी प्रसंसा भी करती है वहीं दूसरे तरह के पत्थर नीव में लगे जिनके जीवन में सिर्फ अँधेरा-अँधेरा ही है लेकिन ताजमहल को उन्होंने खड़ा रक्खा हुआ है, इसलिए तुम नीव के पत्थर बनने की कोशिश करना”| शास्त्रीजी ने कहा मुझे लालाजी के वो शब्द आज भी याद है इसीलिए में नीव का पत्थर बना रहना चाहता हूँ | इसीलिए शास्त्रीजी जीवन पर्यन्त नीवं का मजबूत पत्थर काम करते रहे और कभी भी नहीं चाह कि उनका नाम अख़बारों की सुर्खियाँ बने और लोग उनकी प्रशंसा करें |

कभी भी कायदे कानून की अवेहलना नहीं होने दी——

जब शास्त्रीजी उत्तर प्रदेश में ग्रह (पुलिस) मंत्री थे, तब एक दिन शास्त्री जी की मौसी के लड़के को एक प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना पड़ा। उसे कानपुर से लखनऊ जाना था। गाड़ी छूटने वाली थी, इसलिए वह टिकट नहीं ले सका। लखनऊ में वह बिना टिकट पकड़ा गया। उसने शास्त्री जी का नाम बताया। शास्त्री जी के पास फ़ोन आया। शास्त्री जी का यही उत्तर था, “हाँ है तो मेरा रिश्तेदार ! किन्तु आप नियम का पालन करें।” यह सब जानने के बाद मौसी नाराज़ हो गई।

एक बार उनका सगा भांजा I.A.S की परीक्षा में सफल हो गया, परन्तु उसका नाम सूची में इतना नीचे था कि चालू वर्ष में नियुक्ति का नंबर नहीं आ सकता था, बहन ने अपने भाई से उसकी नियुक्ति इसी वर्ष दिलाने को कहा, अगर शास्त्री जी जरा सा इशारा कर देते तो उसे इसी वर्ष नियुक्ति मिल सकती थी। परन्तु शास्त्रीजी का सीधा उत्तर था, “सरकार को जब आवश्यकता होगी, नियुक्ति स्वतः ही हो जाएगी।” निसंदेह शास्त्रीजी ईमानदारी की साक्षात् मूर्ती थे। नियमों के पालन में उन्होंने कभी भी अपने नाते-रिश्तेदारों का भी पक्ष नहीं लिया, जबकि कई मर्तबा उनके अधीनस्थ अधिकारी, उनके रिश्तेदार की नियम विरुद्ध भी सहायता करने को तैयार थे किन्तु शास्त्री जी ने उनकी भी बात मानने में असमर्थता प्रकट कर दी।

नैतिकता के आधार पर छोड़ दिया था मंत्री पद

1956 में तमिलनाडू के अरियालपुर में हुई रेल दुर्घटना की नेतिक जिम्मेवारी लेते हुए शास्त्रीजी ने रेलवे मंत्री का पद छोड़ दिया था | क्या हम वर्तमान समय मंत्रियों से ऐसे आचरण की अपेक्षा रख सकते हैं?

ना कोई लालच और ना ही पद का अभिमान—

घटना 1965 की है, एक दिन प्रधानमंत्री शास्त्रीजी एक कपड़े की मिल देखने मिल के मालिक, मिल के उच्च अधिकारीयों तथा कई विशिष्ट लोगों के साथ मिल को देखने गये थे। मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुंचे तो उन्होंने मालिक को कुछ साड़ियां दिखलाने को कहा। मिल मालिक ने एक से एक खूबसूरत साड़ियां उनके सामने फैला दीं। शास्त्रीजी ने साड़ियां देखकर कहा- ‘साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं”, पर इनकी कीमत क्या है?’ मिलमालिक बोला ‘जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1000 की है’ | शास्त्रीजी बोले यह तो मेरे बजट से बहुत ज्यादा है, सस्ती साड़ीयां बताओं | दूसरी साड़ियां दिखलाते हुये मिलमालिक बोले देखिये यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की’। ‘अरे भाई, यह भी बहुत महंगी हैं। मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूं।’ शास्त्रीजी बोले। मिल मालिक कहने लगा, ‘वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, आप गरीब कैसे हो सकते हैं ? आप से कीमत कोन मांग रहा है,हम तो ये साड़ियां आपको भेंट कर रहे हैं।’ ‘नहीं भाई, मैं साड़ियाँ भेंट में नहीं लूंगा’, शास्त्रीजी स्पष्ट बोले। ‘क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें’ | ‘हां, मैं प्रधानमंत्री हूं’, शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- ‘पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊं। भाई, मैं प्रधानमंत्री हूं पर हूं तो गरीब ही। आप मुझे सस्ते दाम की साड़ियां ही दिखलाएं। मैं तो अपनी हैसियत की साड़ियां ही खरीदना चाहता हूं।’ मिल मालिक की सारी अनुनय-विनय बेकार गई। देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियां ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं। ऐसे महान थे हमारे शास्त्रीजी जिन्हें कोई लालच था और ना ही पद का अभिमान, उन्होंने जीवन पर्यन्त अपने पद का कोई फायदा नहीं उठाया ।

सहनशीलता में महानता सन्निहित है

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सुरक्षा कारणों से हवाई हमले की घंटी बज सकती थी | उन दिनों सुरक्षा के लिये प्रधान मंत्री भवन मे भी खाई बनवाई गई थी। सुरक्षा कर्मियों ने प्रधान मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री से अनुरोध किया ”आज हमले की आशंका अधिक है आप घंटी बजते ही तुरंत खाई में चले जायें।” किंतु दैवयोग से हमला नहीं हुआ। अगले दिन सुबह देखा गया कि बिना बमबारी के खाई गिरकर पट गई है। खाई बनाने वालों तथा उसे पास करने वालों की यह अक्षम्य लापरवाही थी। यदि वे उस रात खाई के अंदर होते तो क्या होता सोचकर राँगेटे खडे हो जाते हैं। देश के प्रधानमंत्री का जीवन कितना मूल्यवान् होता है? वह भी युद्धकाल में? अन्य व्यवस्था अधिकारियों ने भले ही इस प्रसंग पर कोई कार्यवाही की हो, किन्तु शास्त्रीजी ने संबंधित व्यक्तियों के प्रति कोई कठोरता नहीं बरती अपितु बालकों की भाँति क्षमा कर दिया।

ना क्रोध और ना ही शिकायत

साधारणतया लोग घर में तो वजह-बेवजह अधिकार एवं डांट-फटकार से काम करवाते हैं किन्तु घर के बाहर सज्जनता तथा उदारता के प्रतीक बने रहने का स्वागं करते हैं, किन्तु शास्त्रीजी इसके अपवाद थे। वे स्वभाव से ही उदार तथा सहिष्णु थे। ताशकंद जाने के एक दिन पूर्व वे भोजन कर रहे थे। ललिताजी ने उस दिन उनकी पसंद का खिचडी तथा आलू का भरता बनाया था। ये दोनों वस्तुएँ उन्हें सर्वाधिक प्रिय थीं। बडे़ प्रेम से खाते रहे। जब खा चुके उसके थोडी़ देर बाद उन्होंने वही प्रसंग आने पर बडे़ ही सहज भाव से श्रीमती ललिता जी से पूछा-क्या आज आपने खिचडी़ में नमक डाला था ? ललिता जी को अपनी गलती पर बडा दुःख हुआ किन्तु शास्त्रीजी ने न कोई शिकायत की और ना ही गुस्सा, वे तो फीकी खिचडी़ खाकर भी मुस्कराते रहे । शास्त्रीजी कहते थे कि “ भष्टाचार को गम्भीरता से लें तो जरुर अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकेंगें | लोगों को सच्चा लोकतंत्र और स्वराज कभी भी हिंसा और असत्य से प्राप्त नहीं हो सकता है | जननायक शाष्त्रीजी के 114 वें जन्म दिन पर 132 करोड़ भारतियों का उनके श्री चरणों में नमन| जय जवान, जय किसान” का नारा भारतवाषियों को हमेशा शास्त्रीजी की याद दिलाता रहेगा |

डा.जे.के. गर्ग

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