शब्द रह गए, मसीहा चला गया

*कविराज स्व. सुरेंद्र दुबे की पहली पुण्यतिथि पर होगा सुप्रसिद्ध हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा का सम्मान*

*कमलेश केशोट*
अक्षरों से शब्द बनते हैं और शब्दों की नींव से शब्दों के बाज़ीगर। आज से तकरीबन उनसाठ साल पहले केकड़ी की पावन धरा के गुलगांव में एक शब्द बाज़ीगर सुरेंद्र दुबे ने जन्म लिया। जिसने न केवल हास्य के ज़रिए अपना मुकाम हांसिल किया। बल्कि अपने शब्दों की बाजीगरी से हास्य को दुनियाभर में एक नया मुकाम दिया। तकरीबन चालीस साल पहले घर से निकले गीत लिखने के शौकीन एक युवा जिसके कंठ में साक्षात सरस्वती विराजमान थी। वक़्त रीतने के साथ उसने काव्य जगत में अपनी ऐसी पहचान बनाई कि जब वो इस दुनियां से गया तो मानों शब्दों का संसार खाली हो गया। कविवर स्व. सुरेंद्र दुबे एक बेहतरीन विधा के कवि तो थे ही साथ साथ वे हंसमुख मिज़ाज़ के मिलनसार व्यक्ति भी थे। कोई भी क्षेत्र हो चाहे राजनीति हो, चाहे समाज हो, चाहे खेल हो, चाहे काव्य मंच हो या शिक्षा जगत। सुरेंद्र दुबे ने अपनी सहजता और सरलता से हर जगह अपनी अलग पहचान छोड़ी। हॉकी और क्रिकेट उनका पसंदीदा खेल ही नहीं था। बल्कि वे खुद पारंगत खिलाड़ी भी थे। गाँव की माटी में जन्मे इस युवा ने जब काव्य मंच पर कदम रखा तो शब्दों की ऐसी खुशबू बिखेरी। देखते ही देखते हास्य को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिला दी। वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काव्य पाठ करने वाले प्रदेश के पहले कवि बन गए। काव्य की तमाम विधाओं में पारंगत सुरेंद्र दुबे जब मंच से काव्य पाठ करते तो हास्य से श्रोता गुदगुदाने लगते। बहुत ही कम समय मे वे देशभर में हास्य के स्तंभ के तौर पर उभर कर सामने आए। अपने तल्ख व्यंग्य के जरिए दुबे सरकारों की पोल खोल कर रख देते। उनके लिखे गीत आज भी परिवार को कंठस्थ हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने अनेक युवाओं को हास्य कवि के तौर पर तैयार किया। टीवी के युग मे चैनलों के माध्यम से अपने श्रोताओं को खूब हँसाकर काव्यपाठ को एक नया मुकाम दिया। उन्होंने साहित्य जगत में अनेक उपलब्धियां तो हांसिल की ही। अमेरिका, यूरोप और खाड़ी समेत अनेक देशों में हास्य के रस भी बिखेरे। ‘आओ निंदा-निंदा खेलें’ और ‘कुर्सी तू बड़भागिनी’ जैसी पुस्तकों के अलावा अनेक व्यंग्य लेखों के ज़रिए सरकारों की नींद उड़ाई। वे श्रीमद भगवद गीता के श्रेष्ठतम काव्यानुवाद में जुटे थे। इसी दौरान गंभीर बीमारी ने उन्हें घेर लिया। बावजूद इसके उन्होंने हास्य और व्यंग्य का साथ नहीं छोड़ा। वक़्त बेवक़्त उन्होंने काव्य मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर अपने श्रोताओं और प्रशंसकों का दिल जीता। लेकिन शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। 1 जनवरी 2018 को शब्दों और हास्य के बाज़ीगर सुरेंद्र दुबे असमय काल कवलित हो गए। उनके जाने की खबर से काव्य और साहित्य जगत सन्न रह गया। लेकिन नियति को कौन बदल सका है। गाँव की माटी में जन्मा यह लाल गाँव में ही पंचतत्व में विलीन हो गया। देश दुनियां के तमाम शब्द सम्राटों ने अपने-अपने तरीके से अपने साथी को अंतिम विदाई दी। उनकी देह लपटें उनके अमर काव्य की गाथा गा रही थी। लग रहा था शब्द रह गए, शब्द मसीहा चला गया। दुबे अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़कर गए हैं। एक जनवरी को उनकी पहली पुण्यतिथि है। उनकी यादों और शब्दों को जीवंत रखने के लिए दुबे परिवार ने सुरेंद्र दुबे स्मृति संस्थान की स्थापना की है। यह संस्थान देश-दुनियाँ के नामचीन कवि सुरेंद्र शर्मा को उनकी याद में सम्मानित करने जा रहा है। शब्द मसीहा कविराज स्व. सुरेंद्र दुबे को यही द्रवित भावपूर्ण सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सादर नमन !

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