माँ ’तो भगवान के रूप स्वरूप का साक्षात् प्रमाण हैं। माँ कर्त्तव्य की प्रतिमा हैं। उनका उठना-बैठना,हर शारीरिक कर्म कर्त्तव्य का मौन प्रमाण है। जिसे कोई उपमा न दी जा सके उसका नाम है ‘माँ’। जिसकी कोई सीमा नहीं उसका नाम है ‘माँ’। जिसके प्रेम को कभी पतझड़ स्पर्श न करे उसका नाम है ‘माँ’। ऐसी तीन माँ हैं यथा परमात्मा, महात्मा और माँ। प्रभु को पाने की पहली सीढ़ी ‘माँ’ है। निसंदेह नारी माँ बनने के बाद भगवान के और नजदीक हो जाती है | संसार में ये माँ-बेटे-बेटी का रिश्ता है जिसमें सिर्फ प्यार और दुलार होता है क्योंकि इस रिश्ते में कभी भी स्वार्थ एवम् धोखा नहीं होता है | ‘माँ तो बस माँ’ ही होती है |
माँ क्या हैं इसका अनुमान हम खुद ही लगा सकते हैं क्योंकि बहुत कम समय में माँ हमारे जीवन के हर पहलू में छा जाती हैं – उनका रूप हमारी आँखों से ओझल ही नहीं होता। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधक जन्म-जन्म लगे रहते हैं और अत्यन्त परिश्रम से भी नहीं पा सकते, वह माँ के सम्पर्क से सहज ही हँसते-हँसते प्राप्त होता नज़र आता है। सारी साधना जो पहाड़ के समान दुर्गम लगती थी, अब तो एक बाग में सैर के समान सुहावनी तथा मन मोहक लगने लगती है। ‘माँ’तो ‘माँ’ ही हैं। साधक में प्रेम-श्रद्धा-भक्ति की जन्म दायिनी ‘माँ’हैं। साधक को नव जीवन प्रदान करने वाली माँ हैं।