शासन– व्यवस्था
भगवान अग्रसेन ने एक तांत्रिक शासन प्रणाली के स्थान पर एक नयी प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया
अग्रसेन जी ने वैदिक सनातन आर्य संस्कृति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य केपुनर्गठन में कृषि -व्यापारउद्योग, गौ पालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।
महाराजा अग्रसेन जी पहले शासक थे जिन्होंने सहकारिता के आदर्श को सामाजिक जीवन में प्रतिस्थापित किया। उन्होंने जीवन के सुख सुविधाओं एवं भोग विलास आदि पर धन के अपव्यय के स्थान पर जीवन में सादगी, सरलता और मितव्ययिता बरतने पर जोर दिया। अग्रसेन के मतानुसार “व्यक्ति को अपनी उपार्जित आय को चार भागों में बांट कर एक भाग का उपयोग परिवार के संचालन हेतु, दूसरे भाग का उपयोग उद्योग व्यवसाय या जीविका चलाने हेतु, तीसरे भाग का उपयोग सार्वजनिक कार्यों तथा चौथे भाग का उपयोग बचत कर राष्ट्र की समृद्धि में”करना चाहिये। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है। महाराजा अग्रसेन ने परिश्रम से खेती, व्यापार एवं उद्योगों से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर अग्रसेन जी ने वैश्य जाति को न्याय पूर्ण व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को आत्मरक्षा के लिए शास्त्रों के उपयोग की शिक्षा भी प्रदान करवाई थी | कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। अग्रसेन जी के वंशज आज भी उन्हीं की विचारधारा से प्रभावित होकर जनकल्याण के हितार्थ धर्मशाला, मंदिर,अनाथालय,अस्पताल पुस्तकालय, स्कूल एवं कालेज की स्थापना करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं |