कालगणना दिन दिनांक की शुष्क गणना नहीं है

हनुमान सिंह
हनुमान सिंह

-हनुमान सिंह- कालगणना दिन दिनांक की शुष्क गणना नहीं है। काल गणना विचार का आधार है। विचार के तीन आयाम हैं-भूत, वर्तमान, भविष्य। काल के बिना इन तीनों आयामों का विभाजन संभव नहीं है। भूत हमारा इतिहास है, वर्तमान इसका परिणाम है-खगोल, भूगोल की दशा है तथा भविष्य इसकी दिशा है, गंतव्य, प्राप्तव्य की आकांक्षा है। अर्थात जो तीनों काल का बोध कराता है उसे पंचांग कहते हैं।
पाश्चात्य जगत और काल गणना
पश्चिम जब तक भारत में हुए शून्य के आविष्कार से परिचित नहीं था, उसे गणना करना नहीं आता था। भारत सरकार की वैज्ञानिक एवं अनुसंधान परिषद द्वारा नवंबर 1952 में कलैंडर रिफोर्म कमेटी-पंचांग संशोधन समिति डॉ. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में गठित की गई। इस समिति की आवश्यकता के सम्बन्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने एक पत्र लिखा था। इसका समाचार द हिंदू अखबार में 22 फरवरी 1953 को छपा-क्योंकि अब हम स्वतंत्र है, हमारे देश के नागरिक, सामाजिक व अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक समान पंचांग चाहिए और इसका विकास वैज्ञानिक तरीके से होना चाहिए। राजकीय एवं सार्वजनिक कार्यों के लिए हम ग्रेगोरियन कलैंडर का अनुगमन करते हैं, जो कि विश्व के अधिकतर हिस्सों में प्रयुक्त होता है, किंतु इस कलैंडर में भी पर्याप्त दोष हैं। इसका केवल विस्तृत उपयोग इसे महत्वपूर्ण नहीं बनाता। इसके दोष इसे वैश्विक उपयोग के लिए अयोग्य बनाते हैं।
कलैण्डर रिफोर्म कमेटी ने नवंबर 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। पश्चिमी काल गणना के विकास के सम्बंध में इसके मुख्य बिंदु निम्नलिखित थे-
1. वर्तमान प्रचलित रोमन कलैंडर का ईसाई मजहब से कोई मौलिक सम्बंध नहीं है। मूल रूप से यह उत्तरी यूरोप के अर्धसश्य कबीलों का कलैंडर था, जो मार्च से वर्ष प्रारंभ करते थे। इसके एक वर्ष में 10 महीने और 304 दिन होते थे। दिसम्बर दशम मास अंतिम महीना था।
2. ईसा के 44 वर्ष पूर्व मिश्र पर विजय की याद में रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने नया संवत चलाया, जो 365 दिन का था।
3. रोमन सम्राट जूलियस सीजर व आगस्टस के नाम से जुलाई व अगस्त दो महीने जोड़े गए। फरवरी में से दो दिन निकाल कर इन दोनों को 31-31 दिन का कर दिया गया।
4. ईसा के करीब 530 वर्ष व्यतीत होने के बाद एक सीरियन पादरी डायोनिसियस एक्सीजुअस ने जूलियन संवत को ईसवी सन् के रूप में घोषित कर दिया तथा 25 दिसंबर ईसा मसीह का जन्म दिवस तय कर दिया। पूर्व में यह दिवस मिश्र, बेबिलोन, ईरान आदि में मिश्र सूर्य का पर्याय पूजा का उत्सव था।
5. ईसवी कलैंडर में, 1572 में 13 वें पोप बने ग्रेगरी ने सुधार किया। अत: इसे ग्रेगोरियन कलैंडर कहने लगे। ब्रिटेन ने इसे 1782 ई. में लागू किया। चीन, अलबानिया, बुलगेरिया, रूस, रोमेनिया, ग्रीस, तुर्की आदि देशों ने तो इसे बीसवीं शताब्दी में अपनाया।
वर्तमान में व्यापक उपयोग के बाद भी इस कलैंडर के दोष क्या हैं? निरपेक्ष दृश्टि से इसे देखना चाहिए –
nav1. यह कलैंडर प्रयोग में असुविधाजनक एवं अवैज्ञानिक है। महीनों मे दिनों के वितरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसका कोई महीना 28 या 29 दिन, कोई 30 कोई 31 का है।
2. ग्रेगोरियन कलैंडर की गणना का कोई खगौलीय आधार नहीं है।
3. यह कलैंडर किसी ऋतु चक्र पर आधारित नहीं है।
4. यह कलैंडर न किसी ऐतिहासिक घटना से जुड़ा है, न इससे संस्कृति का बोध होता है।
भारतीय काल गणना:
आधुनिक काल के प्रख्यात ब्रह्मांड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने एक पुस्तक लिखी है-द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम अर्थात समय का संक्षिप्त इतिहास। इसके अनुसार आदिद्रव्य में बिगबैंग अर्थात महाविस्फोट हुआ और इसके साथ ही ब्रह्मांड अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आने लगा। इसी के साथ काल अर्थात टाइम भी उत्पन्न हुआ।
काल एवं कालक्रम का भारतीय ऋषियों ने भी सूक्ष्म विचार किया था। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि की उत्पत्ति का अत्यंत वैज्ञानिक वर्णन है। भारत के प्राचीन परमाणु वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने वैशषिक दर्शन में काल का द्रव्य अर्थात मैटर के रूप में वर्णन किया है –
पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि

अर्थात पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा, मन ये द्रव्य हैं। भारतीय ऋषियों ने केवल प्रकृति के घटनाक्रम का अध्ययन कालक्रम के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं किया, अपितु स्वयं काल को भी अपने सूक्ष्म अध्ययन का विषय बनाया। ऋग्वेद में संवत्सर के उत्पन्न होने का वर्णन इस प्रकार है-ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसो अध्यजायत। ततो रात्रयजायत तत: समुद्रो अर्णव:।
महान प्रकाश मान तप से ऋत एवं सत्य अर्थात मूल तत्व तथा भासित होने वाले प्रकृति पदार्थों की अधिकृत उत्पत्ति हुई। सृष्टि काल पूरा होने पर तब रात्रि प्रलय की स्थिति उत्पन्न हुई। उसके समापन पर फिर अर्णव समुद्र गतिमान मूल द्रव्य का अथाह प्रवाह उत्पन्न हुआ।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिशतो वषी।
अर्णव समुद्र के माध्यम से संवत्सर समय-काल चक्र का प्रादुर्भाव हुआ। विश्व को वश में रखने वाले परमात्मा ने पलक झपकने की तरह दिनों एवं रात्रियों का स्वरूप दिया। मूल द्रव्य का प्रवाह उत्पन्न होने पर ही काल का बोध होता है। काल परिवर्तन सापेक्ष है। जब तक परिवर्तनशील पदार्थ नहीं बनता, तब तक समय का भी अस्तित्व नहीं होता । सृष्टिक्रम चल पडऩे पर ही समय का भान होता है। तब उसकी छोटी इकाइयों, दिन रात्रि आदि का निर्धारण होता है। विराट संदर्भ में दिन एवं रात्रि सृष्टि एवं प्रलय काल के घोतक हैं। अत: सृष्टि चक्र के प्रवाहित होने के आरम्भ से सर्वप्रथम जो दिन हुआ, वहीं से काल चक्र का प्रवाह प्रारम्भ होता है।
काल मूलत: गत्यर्थक है। इसका गणनात्मक रूप बाद में आया। वैज्ञानिक विकास के साथ गणितीय गणनाओं एवं सूत्रों का उद्भव होता है। जिस प्रकार कार्बन काल-निर्धारण जैसी विधियां आज प्रचलित हैं। प्राचीन ऋषियों ने ध्यान द्वारा इन्हें प्राप्त किया था।
भारतीय काल गणना खगोलिय प्रेक्षणों पर आधारित है। भारतीय काल में तीन काल निर्धारक माने हैं-
1. अपनी धुरी पर घूमती हुई पृथ्वी, जिससे दिन रात बनते हैं।
2. चन्द्रमा, जिसकी गति से पक्ष और मास बनते हैं।
3. सूर्य, जिसकी गति से ऋतु चक्र तथा वर्ष बनता है।
दिन की अवधि बदलती रहती है, अत: दिन की औसत अवधि 24 घंटा 3 मिनट 56.555 सैकंड होती है। व्यावहारिक दृष्टि से एक औसत दिन 86400 सैकंड का माना जाता है। वर्तमान में एक चंद्र मास 29.5305881 दिन का होता है। चंद्र मास की अवधि में भी अंतर आता है। इसी प्रकार एक वर्ष में औसत 365.2421955 दिन होते हैं। इन खगोलीय गणनाओं से पंचांग का सामंजस्य भारत की अनुपम खोज है। विश्व के किसी भी अन्य पंचांग में यह संभव नहीं हुआ है। तिथियों की घटत-बढ़त तथा अधिक मास अत्यंत सूक्ष्म गणनाओं के व्यावहारिक समायोजन का परिणाम हैं।
भारतीय पंचांग के पांच तत्व इस प्रकार हैं-
1. वार: सूर्य सिद्धांत के अनुसार दिन का प्रारंभ अर्धरात्रि से माना जाता है, जबकि विष्णुधर्मोत्तर पुराण, आर्यभट्ट प्रथम, ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य सूर्योदय से दिन का प्रारम्भ मानते हैं। दोनों ही मान्यताएं आजकल प्रचलित हैं। पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने है, उसे अह: तथा जो पीछे है, उसे रात्र कहा गया। एक अहोरात्र में 24 होरा अर्थात ऑवर होते हैं। दिन के प्रत्येक होरा अर्थात घंटा का सम्बन्ध एक ग्रह से है। सूर्योदय के समय जो ग्रह होता है, वही उस दिन का नाम होता है। सृष्टि का प्रारंभ सूर्योदय से होता है, अत: पहला वार रविवार है। सप्ताह के नामों की यह भारतीय पद्धति पूरे विश्व में स्वीकृत है।
2. तिथि: चान्द्र दिन को तिथि कहते हैं। पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुए चंद्रमा का 12 अंश अर्थात डिग्री तक चलन एक तिथि कहलाता है। अमावस्या के दिन चंद्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे शून्य अंश अर्थात जीरो डिग्री कहते हैं। चंद्रमा का सूर्य से 180 अंश के अंतर पर होना पूर्णिमा कहलाता है। इस प्रकार कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष की 15-15 तिथियां बनती हैं।
3. करण: तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं, अर्थात एक तिथि में दो करण होते हैं।
4. नक्षत्र: आकाश मंडल में तारों के समूह मिलते हैं, जिनकी विशेष प्रकार की आकृतियों के आधार पर नाम दिया गया है। इन्हें नक्षत्र कहा जाता है। जिस प्रकार से लोक व्यवहार में एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी किलोमीटर में नापी जाती है, उसी प्रकार आकाशमंडल की दूरी नक्षत्रों से नापी जाती है। काल गणना के लिए आकाश मंडल को 27 नक्षत्रों में बांटा गया है- अष्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती।
27 नक्षत्रों में से प्रत्येक के चार पद अर्थात चरण किये गए हैं। कुल 108 चरण हुए, इनमें से 9 पाद की आकृति के अनुसार 12 राशियों के नाम रखे गए हैं-मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृष्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन।
पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई है। सूर्य अपने परिभ्रमण काल में जिस राशि चक्र में आता है, उसे सौर मास तथा उस राशि में प्रवेश को संक्रांति कहते हैं, जैसे मकर संक्रांति। वर्ष में बारह संक्रंाति होती हैं।
जो नक्षत्र मासभर सायंकाल से प्रात:काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे अर्थात पूर्णिमा, उस नक्षत्र के नाम पर चन्द्रमास का नाम होता है। उदाहरण के लिए पूर्णिमान्त चन्द्रमा जब चित्रा नक्षत्र के योग में होता है तो उस मास का नाम चैत्र मास होता है। 12 मास क्रमश: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक , मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन है।
5. योग- सूर्य तथा चन्द्रमा को 13 1/3 अंश का परिक्रमण करने में लगने वाली अवधि को योग कहते हैं। 12 राशियां पार करने में कुल 27 योग होते हैं।
काल गणना के दो पक्ष:
भारतीय काल गणना स्थूल एवं सूक्ष्म दो प्रकार की है –
अ. स्थूल काल गणना- भारतीय स्थूल काल गणना के दो पक्ष हैं-प्रथम पक्ष तो ब्रह्मांड की उत्पत्ति के प्रारम्भ की गणना करता है, दूसरा पक्ष पृथ्वी पर वर्तमान सृष्टि के प्रारम्भ से वर्तमान समय तक का परिचय देता है।
हमारे पूर्वजों ने यहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोडऩा तथा समाज में सर्व सामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अदभुत व्यवस्था की थी, उसका नाम है संकल्प पाठ – यह संकल्प मंत्र अर्थात अनंत काल से आज तक की काल यात्रा, इतिहास के प्रवास, विश्वात्मा से जीवात्मा तक के सृष्टि – विलास का दिग्दर्शन है। यदि इस वर्ष प्रतिपदा नव संवत्सर को यज्ञ से पूर्व संकल्प पाठ करेंगे तो कहेंगे –
ओम अद्य ब्रह्मणोअह्मि द्वितीय परार्धे श्री श्वेत
वाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमें कलियुगे कलि
प्रथम चरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्मूद्वीपे भरतखंडे भारतवर्षे।
पुष्कर क्षेत्रे अजेयमेरू नगरे 2069 विक्रम संवतसरे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपदा तिथौ शुक्रवासरे………. गोत्रोत्पन्न……….नामाहहे प्रात: सत्प्रवृति संवर्द्धनाय, दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलनाय, लोक कल्याणय, आत्मकल्याणाय, वातावरण- परिष्काराय, उज्ज्वल भविष्य कामना पूर्तये च प्रबल पुरुषार्थ करिश्ये, अस्मै प्रयोजनाय च यज्ञ कर्म सम्पादनार्थं संकल्पम अहं करिष्ये।
मन्वन्तर विज्ञान – इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वन्तर विज्ञान में है। इस ग्रह के सम्पूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात मन्वन्तरों में बांटा है। सूर्यमंडल अर्थात सौर मंडल के परमेष्ठी मंडल अर्थात आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा जाता है। एक मन्वन्तर की आयु 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष की होती है।
कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भु मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। इस काल को कल्प कहते हैं। इसका मान 4 अरब 32 करोड़ वर्ष होता है। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया।
युगमान- काल की इकाइयों की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास के लिए काल गणना में भारतीय मनीषियों ने अंतरिक्ष के ग्रहों की गति को आधार मान कर युगों की इकाइयों का निर्माण किया है –
क. पंचवर्षीय युग – पंचवर्षीय युग युगमान की प्रारंभिक इकाई थी। जब सूर्य और चन्द्र्रमा पांच वर्ष बाद माघ शुक्ल प्रतिपदा को घनिष्ठा नक्षत्र में आते थे, तो उत्तरायण के साथ ही पंचवर्षीय युग का आरम्भ होता था। पंचवर्षीय युग के वर्षों का नामकरण संवत्सर, परिसंवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर तथा इदवत्सर हैं।
ख. बारह वर्षीय युग – बृहस्पति के आधार पर यह युगमान दिया जाता है। बृहस्पति एक राशि के भोग में एक वर्ष लगाता है और इस प्रकार 12 वर्ष में एक परिभ्रमण होता है। जिस राशि में बृहस्पति होता है उस राशि के नक्षत्र के आधार पर बार्हस्पत्य वर्ष का नाम होता है।
ग. साठ वर्षीय युग – युग की सीमा को अधिक व्यापक बनाने के लिए उपरोक्त दोनों युगमानों का मिश्रण किया गया अर्थात बृहस्पति का एक भ्रमणचक्र 12 वर्ष में पूरा होता है तथा पांच चक्रों का एक युग माना जाता है। इस युगमान का प्रारंभ तब हुआ जब सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की युति माघ शुक्ल प्रतिपदा को घनिष्ठा नक्षत्र मेंं हुई। यह घटना 86 करोड़ 50 लाख वर्ष में एक बार होती है। ऐसा अवसर कल्प में केवल पांच बार आता है।
चतुर्युगमान – अत्यधिक लम्बी कालावधि के परिगणना के लिए चतुर्युगमान का निर्माण किया गया। पृथ्वी को प्रभावित करने वाले सातों ग्रह कल्प के प्रारम्भ में एक साथ अश्विनी नक्षत्र में स्थित थे। अत: उनकी पहली युति कलियुग कलि अर्थात एक कहलाया –
प्रथम युति-कलियुग-4,32,000 वर्ष, द्वितीय युति-द्वापर युग-8,64,000 वर्ष, तृतीय युति-त्रेता युग-12,96,000 वर्ष, चतुर्थ युति-सत्य युग-17,28,000 वर्ष।
वर्तमान सृष्टिमान- संकल्प मंत्र के अनुसार ब्रह्मा के 50 ब्राह्म वर्ष बीत गए है। वर्तमान श्वेत वाराह कल्प से इनका 51 वां वर्ष चल रहा है। इस कल्प के 6 मनवन्तर बीत चुके हंै। सातवां वैवस्वत मनवन्तर चल रहा है। इस मनवन्तर की 27 चतुर्युगी पूर्ण हुई। वर्तमान में 28 वीं चतुर्युगी के सत्य, त्रेता, द्वापर युग पूरे होकर कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है। कलियुग के 5113 वर्ष पूर्ण हुए तथा इस चैत्र से 5114 वां वर्ष प्रारम्भ होगा। इस प्रकार इस सृष्टि के 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 113 वर्ष बीत चुके हैं।
भारतीय काल गणना की प्राचीनता का प्रमाण-
1. खगोलीय साक्ष्य-
अ. आधुनिक बिग-बैग सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति लगभग 200 करोड़ वर्ष पूर्व हुई, जो भारतीय काल-गणना के निकट है।
आ. चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से मंगल ग्रह के अलग होने के साथ एक अतिरिक्त टुकड़े के रूप में हुई। ऐसी स्थिति में चन्द्रमा उत्पत्ति के समय पृथ्वी से लगभग एक लाख किलोमीटर दूर अवश्य रहा होगा। चन्द्रमा लगभग 13 सेमी प्रतिवर्ष की दर से पृथ्वी से दूर हट रहा है। पृथ्वी से चन्द्रमा की वर्तमान दूरी 3.86 लाख कि.मी. है। चन्द्रमा ने यह 2.86 लाख कि.मी. की दूरी लगभग 2 अरब वर्श में तय की होगी।
2. भू-वैज्ञानिक साक्ष्य-
अ. सागरीय लवणता – सागरों की उत्पत्ति के समय जल खारा नहीं था। अनुमान के अनुसार नदियां प्रतिवर्ष नमक समुद्र में पहुँचाती है। समुद्र की वर्तमान लवणीयता के आधार पर सागरों की आयु 150 करोड़ वर्ष आंकी गई है।
आ. अवसाद क्रिया – आग्नेय चट्टानों के अपक्षय से अवसादी शैलों का निर्माण हुआ। होम्स नामक वैज्ञानिक के अनुसार भूपटल पर अवसादी चट्टानों की अधिकतम मोटाई 112 कि.मी. है। इसे एकत्रित होने में अनुमानित 130 करोड़ वर्ष लगे होंगे। पृथ्वी की आयु लगभग इससे दुगुनी होगी।
ई. रेडियो सक्रियता – रेडियो सक्रिय तत्व यूरेनियम के तत्वांतरण से बने सीसे तथा हीलियम की चट्टानों में मात्रा ज्ञात करने से इनकी आयु लगभग 200 करोड़ वर्ष आंकी गई है। काल गणना की यह आधुनिक पद्धति है, इससे भी भारतीय काल गणना की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है।
3. जीवाष्मीय साक्ष्य- पृथ्वी के भू-गर्भिक इतिहास के प्रत्येक युग में अवसादी चट्टानों में विशेष प्रकार के जीवाश्म पाये जाते हैं। जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर पृथ्वी पर जीवन का प्रारम्भ 100-150 करोड़ वर्ष पूर्व माना गया है तथा पृथ्वी की आयु 200 करोड़ वर्ष मानी गई है।
नव संवत्सर का महत्व- काल गणना प्राकृतिक, खगोलीय, राजनीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक चेतना की घौतक होती है। आपकी कुछ स्मृतियां होंगी तो उनके घटित होने के काल क्रमानुसार उन्हें संजोने की प्रेरणा विकसित समाज में उत्पन्न होती है। नवंसवत्सर से इतिहास की भी कई कडिय़ां जुड़ती हैं, किन्तु इन घटनाओं से नव संवत्सर का महत्व नहीं है। ये घटनाएं नव-संवत्सर को हुई यह स्मृति महत्व पूर्ण है।
1. वैज्ञानिक एवं वैश्विक काल गणना- भारतीय काल गणना विशेषता यह है कि यह उस काल तत्व पर आधारित है, जो सारे ब्रह्मांड को व्याप्त करता है। इस कारण यह विश्व की अन्य काल गणनाओं की भांति घटना विशेष, व्यक्ति विशेष पर आधारित किसी देश विशेष की कालगणना नहीं है, अपितु नक्षत्रों के कलन पर आधारित यह काल गणना समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति एवं पृथ्वी पर सृष्टि चक्र के प्रारम्भ को इंगित करती है। इसी कारण यह काल गणना वैज्ञानिक एवं वैश्विक है। व्यक्ति विशेष, घटना विशेष, जाति विशेष अथवा देश विशेष से सम्बन्धित न होने के कारण इसे सृष्टयाब्द या कल्पाब्द के नाम से जाना जाता है।
2. भौगोलिक महत्व-
अ. अमावस्या के दिन अपने को सम्पूर्ण रूप से सूर्य की कला में विसर्जित कर जो इस सूक्ष्म शक्ति आती है। उसे अमृत-कला कहते हैं। चन्द्रमा की इस अदृश्य अमृत कला से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष प्रारम्भ होता है। इसीलिए भारत में प्रचलित सभी संवतों का यह प्रारम्भ दिन है।
आ. वर्ष प्रतिपदा वास्तविक पृथ्वी-दिवस है, क्योंकि यह धरती माता का जन्म-दिवस है।
ई. बसंत में नव संवत्सर का आगमन होता है। यह पेड़-पौधों में नवीन वृद्धि का समय है। पतझड़ के बाद नये पत्ते आते हैं। यह प्रफुल्लता और प्रेरणा की ऋतु है।
3. ऐतिहासिक महत्व-
अ. वर्ष प्रतिपदा को भगवान राम का राज्यारोहण हुआ। आदर्श राम राज्य की स्थापना हुई। इसके लिए कहा जाता है-दैहिक दैविक, भौतिक तापा। राम राज काहु नहीं व्यापा।
आ. शक्ति रूपा अन्नपूर्णा मां दुर्गा की उपासना चैत्रीय नवरात्र के रूप में इसी दिन से प्रारम्भ होती है। यह समाज के रक्षण-पोषण के लिए तत्पर, देवताओं की संगठित शक्ति से प्रादुर्भूत ऊर्जा-पुंज देवी दुर्गा हमें संगठित, विजयशालिनी कार्य शक्ति खड़ा करने की प्रेरणा देती है।
ई. विक्रम सम्वत् का प्रारम्भ करने वाले शकारि विक्रमादित्य के पुण्य स्मरण का प्रसंग भी इस दिन से जुड़ा है। शकों को परास्त ही नहीं किया, उन्हें राष्ट्रीय हिन्दू समाज में समरस कर पचा लिया, यह भी इसका एक प्रबोधन है।
उ. वरुणावतार संत झूलेलाल का जन्म वर्ष प्रतिपदा वि.सं. 1064 को नासरपुर सिंध में हुआ। आपने आततायी मुस्लिम शासक मिरख शाह को परास्त करने के लिए जल सेना का निर्माण किया। तीव्रगामी नौकायुक्त उत्तम जल सेना के कारण, इनको दरिया शाह भी कहते हैं।
ऊ. महर्षि दयानन्द ने वेदों के ज्ञान व गौरवमय आर्यजीवन की पुन: स्थापना के लिए वर्ष प्रतिपदा के दिन आर्य समाज की स्थापना की।
ए. वर्ष प्रतिपदा गुरू अंगद देव जी का जन्म दिवस है। आपने गुरू नानक देव जी की शिक्षाओं का राष्ट्र रक्षा के अनुरूप प्रसार किया तथा दलित पिछड़े लोगों को गले लगाकर समरसता का संदेश दिया।
ऐ. संविधान निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर का जन्म वि.सं. 1948 की वर्ष प्रतिपदा 14 अप्रेल 1891 को हुआ था।
ओ. अपने समय के क्रांतिकारी, कांग्रेस के पदाधिकारी रहे तथा बाद में 1925 में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की स्थापना करने वाले राष्ट्र चिंतक, संगठन मंत्र दृष्टा डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म दिवस।
औ. वैदिक ऋचाओं के दृष्टा महर्षि गौतम का जन्म दिवस भी वर्ष प्रतिपदा को ही है।
अं. भारत में प्रचलित सभी सम्वतों के प्रारम्भ का दिन है।
4. संास्कृतिक महत्व- भारतीय पंचांग के अनुसार वर्ष का अन्तिम महिना फाल्गुन है। इसका समापन होली पर्व से होता है, जिसका अपना ऐतिहासिक, सांस्कृतिक महत्व है, किन्तु इस पर्व से जुड़े कुछ प्रसंगों का नव वर्ष से सम्बन्ध है –
अ. होली पर धान्येष्ठि यज्ञ होता है। अर्थात नववर्ष का प्रारम्भ नवान्न से होता है। भारत के अधिकतर पर्व-त्यौहारों का प्रकृति, ऋतु चक्र से सम्बन्ध है। यह रबी की फसल कटने के उल्लास का अवसर है।
आ. होली रंग का त्यौहार है। वर्षभर की कटुता को भुलाकर नववर्ष के स्वागत में एक दूसरे को रंग लगा कर सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं।
इ. होली से हुड़दंग भी जुड़ा है। होली के गीत कई बार तो अश्लीलता की सीमा तक चले जाते हैं। भारत जैसी उदात्त संस्कृति वाले देश में यह व्यवस्था कैसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त कर सकी होगी, इस पर विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि यह अत्यन्त मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है। व्यक्ति इतना संस्कारित हो सकता है कि अश्लीलता या कुविचार उसे छू भी न सकें, किन्तु हम समाज में रहते हैं, अच्छी-बुरी सब बातें न चाहते हुए भी हमारे कानों में प्रवेश करती हैं। हमारे अवचेतन मन में ये वर्ष भर जमा होती हैं। इनकी तरंगें मनोविकार उत्पन्न कर सकती हैं। इस कुत्सित कचरे को मनो-मस्तिष्क से निकाल कर वर्ष प्रतिपदा से उच्च मनो भूमिका से पुन: लगने की व्यवस्था का नाम होली का हुड़दंग है। इस प्रकार होली वर्श प्रतिपदा की तैयारी का त्यौहार भी है।
5. आध्यात्मिक महत्व– पाश्चात्य नववर्ष की वर्ष प्रतिपदा से तुलना कीजिए। 31 दिसम्बर की रात्रि आसुरी भोग की रात्रि है। उत्तेजक संगीत, सुरापान और अंधेरा करके देर रात तक एन्जॉयकरते हैं, सुबह खुमारी और हेंग ऑवर से तथाकथित नव वर्ष का स्वागत करते है। वर्ष प्रतिपदा दुर्गा पूजा हेतु घट-स्थापना, यज्ञ, पूजा से प्रारम्भ होती है। इसमें दीप जलाते हैं, बाकी दिनों में असंयमित जीवन जीने वाला भी इस दिन व्रत-उपवास, देव-पूजा से संयम धारण करता है। यह है मदिरालय और मंदिरालय का अन्तर। क्या अपनाना यह विचार आपको करना है।
ब. सूक्ष्म काल-गणना- ब्रह्माण्ड की आयु, कल्प, मनवन्तर, चतुर्युगी आदि बड़ी गणनाएं हैं। सामाजिक जीवन एवं वैज्ञानिक गणना में समय के सूक्ष्म कलन की आवश्यकता भी होती है। वर्ष प्रतिपदा से इसका सम्बन्ध न होने के कारण इसका विस्तृत विवेचन न करते हुए सांकेतिक जानकारी करने की प्रयत्न करते हैं। भारतीय सूक्ष्म काल गणना का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है। श्रीमद्भागवत में शुक देव मुनि बताते हैं-
2 परमाणु-1 अणु, 3 अणु-1 त्रसरेणु, 3 त्रसरेणु-1 त्रुटि, 100 त्रुटि-1 वेध, 3 वेध-1 लव, 3 लव-1 निमेष, 3 निमेष-1 क्षण, 5 क्षण-1 काष्ठा, 15 काष्ठा-1 लघु, 15 लघु-1 नाडि़का, 2 नाडि़का-1 मुहूर्त, 30 मुहूर्त-1 दिन-रात, 7 दिन-रात-1 सप्ताह, 2 सप्ताह-1 पक्ष, 2 पक्ष-1 मास, 2 मास-1 ऋतु, 3 ऋतु-1 अयन, 2 अयन-1 वर्ष।
महाभारत के मोक्ष पर्व में अध्याय 231 में काल गणना निम्न प्रकार है-
15 निमेष-1 काष्ठा, 30 काष्ठा-1 कला, 30 कला-1 मुहूर्त, 30 मुहूर्त-1 दिन-रात।
भास्कराचार्य ने त्रुटि को काल की सूक्ष्मतम इकाई माना है। एक त्रुटि कमल के पत्ते में सूई से छेद करने में लगा समय है।
100 त्रुटि-1 तत्पर, 30 तत्पर-1 निमेष, 45 निमेष-1 असु प्राण, 1 असु-4 सैकंड।
इन सूक्ष्मतम इकाईयों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक मनीषियों ने इस सूक्ष्मतम इकाइयों का आविष्कार केवल मनोविनोद के लिए नहीं किया परन्तु विज्ञान के किन्हीं तीव्रतम गति सीमा वाले पदार्थों के परिमाप हेतु किया।

संदर्भ ग्रंथ-
1. भारतीय काल गणना का वैज्ञानिक एवं वैश्विक स्वरूप सम्पादक- डॉ. रविप्रकाश आर्य।
2. भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा-सुरेश सोनी
3. हिन्दुत्व की वैश्विक दृष्टि और वैज्ञानिक आयाम, राष्ट्रीय संवाद विशेषांक, उदयपुर
4. विश्व की काल यात्रा-वासुदेव पोददार
5. हमारे उत्सव- रा.स्व. संघ
6. कर पत्रक-साहित्य परिषद, अजमेर-डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली, वि.सं. 2060
7. कर पत्रक-अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, केशवकुंज, झंडे वाला, नई दिल्ली-55
8. भारत सरकार द्वारा गठित कलेंडर रिफोर्म कमेटी की रिपोर्ट
9. मां धरती को नमन अभियान वि.सं. 2068, लेखक-इन्द्रेश कुमार
10. द हिन्दू-दिस डे देट एज, 22-2-2003
11. केलैंडर रिफोर्म कमेटी, 1952-रिपोर्ट
12. फ्रंट लाइन, वोल्यूम-25, इश्यू-06, मार्च 15-28, 2008
13. साहा एंड केलैंडर रिफोर्म साहा एंड हिज फॉर्मूला पुस्तक का अध्याय

भारत को स्वदेश कहते हो,
तो नव वर्ष विदेशी क्यों ?
नव संवत्सर मनाइये, देश की माटी से जुडिय़े।

स्वाभिमान से बोलो…..
नव संवत्सर मंगलमय हो।

भोजन में झूठन नहीं लेते
तो पर्व-त्यौहार में क्यों ?
भारतीय नव वर्ष यानि स्वाभिमान।

कह दिया ना …….
अपना नव वर्ष ……. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही ।।

राष्ट्र भक्ति यदि हृदय में
अपना नव वर्ष मनायें।
नव संवत्सर मंगलमय हो।

अपना नव वर्ष नहीं जानते,
नव संवत्सर है न।
लेखक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं

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