महान संत कंवरराम साहिब

जयंती, 13 अप्रैल पर विशेष
sant kanwar ram 1भारत का आकाश अनेक भक्तों से भरा पड़ा है। इनमें से एक उज्ज्वल नक्षत्र की भांति सदा चमकते संत कंवरराम की महिमा अपरम्पार है। वे समर्पित भाव से सुर साधना में लगे रहे। जैसा कि हर मनुष्य का अधिकार है कि वह अपने अन्तर आलोक को उपलब्ध होकर आत्मिक आनन्द में लीन हो। बीज वृक्ष बनकर अन्य का हित साधक बनता है। कहा है-भाव वाले मुझको बांधते जंजीर में, इसलिए इस भूमि पर होता मेरा अवतार है। ऐसे ही अलोकिक महामना कंवरराम थे, जिनकी वाणी में प्राणों की बंसी के रन्ध्र-रन्ध्र में फूंक भरकर नवजीवन जगा देने वाली संजीवनी थी। वे धर्म जगत की अमूल्य निधि थे। जीवनभर मनुष्य को मनुष्य से जोड़ते रहे। आप में नर्बदा की निर्मलता, सतपूड़ा की गहन गम्भीरता एवं विद्याचल की विनम्रता थी।
अविभाजित भारत का सिंध प्रान्त अनेक आध्यात्मिक सद्गुरुओं का अवतरण स्थल रहा। कंवरराम भी वहीं जरवारान गांव में अप्रेल तेरह तारीख 1885 को पिता ताराचन्द जी व माता तीरथा बाई के घर अवतरित हुए। बालक कंवरराम जब आठ वर्ष के थे, तभी उनकी मां ने उन्हें चने उबाल कर छोटी मटकी में बेचने के लिए देती थी। बालक मन को हर्षित करने वाली वाणी में चने ले लो-चने ले लो बोलते थे।
एक बार गांव में संत रामदास जी अपनी भजन मंडली के साथ आये। उस दिन मां ने और दिनों से ज्यादा चने उबाल कर दिये और कहा जितनी कटोरी चने दो, उतनी ही कटोरी अनाज लाना। उनकी मिश्री सनी मीठी बोली में चने ले लो-चने ले लो बोलते जब संत रामदासजी ने सुना तो बरबस ही उनके पास आकर बोले तुम्हारा नाम क्या है? बालक ने जवाब में कहा-कंवरराम और चरण छूए। संत ने कहा तेरी पूरी मटकी के चने मुझे दे दे और बताओ कितने पैसे लोगे। कंवरराम ने कहा पैसे मुझे नहीं चाहिये आप देना ही चाहें तो ऐसी आशीष दें कि मेरे सारे खोटे करम कट जाएं। संत रामदास जी ने गदगद हो कर गले से लगा लिया। बड़े होकर वही बालक कंवरराम संत रामदास जी के वारिस बने।
कंवरराम जहां-जहां अपनी भजन मंडली के साथ जाते, वहीं उनके भजन सुनने दूरदराज गांवों से लोग आते। रात-रात भर भजन चलते। भजन समाप्त होने पर जो चढ़ावा आता, वे उसमें से अपने लिये कुछ भी नहीं रखते। सब धन राशि गरीब विधवा और बेसहारा लोगों में बांट देते या मंदिर, मस्जिद, धर्मशाला निर्माण हेतु वहां की पंचायत को दे देते। संत कंवरराम बिना भेदभाव के सभी दीन दुखियों की मदद करते थे।

कंवल प्रकाश किशनानी
कंवल प्रकाश किशनानी

उस जमाने में एच.एम.वी. नामक कम्पनी के मालिक ने उन्हें पूछा-हमें आप के गीतों को रेकार्ड करना है, आप क्या लेंगे? उन्होंने कहा मैं तो प्रभु प्रेम ही गाता हूं, भक्त श्रोता प्रेम से सुनते हैं, जो मिलता उसे धर्मशाला निमार्ण में दे देता हूं। इस शर्त पर उनके दस गीत रेकार्ड कर दस धर्मशालाएं बनायी गयीं।
वे जीवनभर सामाजिक समरसता के पक्षधर रहे। उनके गीतों के रेकार्ड अमूल्य धन धरोहर रूप में सुरक्षित हैं। उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया। 25 अक्टूबर 1933 को अपने गांव से मांझानन्द पहुंचे। वहां चार दिन सतत भाव भक्ति प्रेम की गंगा बहाई। अन्तिम दिवस की रात्रि के चौथे पहर में उन्होंने मारू राग गाया, जिससे सब श्रोताओं का अक्षुपात हुआ। कहते हैं कि मारू राग मरने पर ही गाया जाता है। संत कंवरराम दादू शहर होते हुए सक्खर के लिये रवाना हुए।
सक्खर जाने के लिए उन दिनों रूकन जेक्सन पर गाडी बदलनी पड़ती थी। एक नवम्बर 1939 को स्टेशन पर कुछ हथियारबंद मुस्लिम व्यक्तियों ने पैर छुए और आशीर्वाद लिया। संत कंवरराम ने दिव्य दृष्टि से भांप लिया और कहा कि जिस कार्य हेतु आए हो ईश्वर तुम्हें उसमें सफलता दे। गाडी रवाना होने ही वाली थी कि किसी ने उन्हें गोली मार दी। वे खिड़की के पास ही बैठे थे। प्राण पखेरू उड़ गये।
उनकी मृत्यु पर सभी समुदायों ने शोक मनाया और कहा कि मानवता का मसीहा चला गया। अस्तित्व में कभी कभी दो महापुरुषों की मृत्यु में समानता घटती है। महात्मा गांधी और संत कंवरराम को गोली लगी, दोनों ने ही अन्त में हे-राम कहा। वे देहातीत होकर भी हमारे मनों पर राज कर रहे हैं। उनका पावन स्मरण देश व धर्म को ऊर्जा प्रदान करता है। यत्र-तत्र-सर्वत्र उनका यश चन्दन महक रहा है।
सिंध के प्रसिद्ध लेखक अब्दुल कादर जुणेजो ने कहा कि जब सच्चाई, दानवीरता, इबादत, मोहब्बत और संगीत आपस में मिलते हैं, तो संत कंवरराम जन्म लेते हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रयास एवं लोकप्रिय संत स्वामी चांडूराम जी साहिब के आशीष से हम सब आल्हादित हैं।
लगे शिष्य का गुरू से, बिंदू का सिंधु से, आराधक का आराध्य से, प्रतिमा का शिल्पी से, मोती का सीप से, श्रद्धा का विश्वास से, मिलन का महोत्सव है।
जब तक ऋतुओं में बसन्त का नाम रहेगा।
भगत और भक्ति पथ में कंवरराम का नाम रहेगा।
-कंवल प्रकाश किशनानी
9829070059
599/9, राजेन्द्रपुरा हाथीभाटा, अजमेर

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