ख्वाजा साहब की कब्र पर ढ़ाई सौ साल तक नहीं थी मजार

Dargaah 28इस्लाम से निकले सूफी सिलसिले के कदीमी दरवेश ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में आज जो अकीदतमंदों का सैलाब उमड़ता दिखाई देता है, उसे देख कर कोई सपने में नहीं सोच सकता कि किसी जमाने में ख्वाजा साहब की कब्र पर मजार शरीफ नहीं था और न ही गुंबदनुमा इमारत।
जाने-माने इतिहासज्ञ डॉ. वी.एस. भार्गव द्वारा इतिहास की किताबों का खंगालने से यह हकीकत सामने आई है। उन्होंने आज से कोई ग्यारह साल पहले खुलासा किया कि तकरीबन ढ़ाई सौ साल तक उनकी कब्र पर कोई मजार नहीं थी। अंग्रेजी भाषा के जाने-माने इतिहासज्ञ दीवान बहादुर हरविलास शारदा ने अपनी किताब में लिखा है कि ख्वाजा साहब का विसाल 633 हिजरी में हुआ था। उनका इंतकाल रजब माह की छह तारीख को हुआ था। कहा जाता है कि उनके इंतकाल के समय उनके ललाट पर लिखा था- हबीब अल्लाह माता की हुब्बिल्लह यानि अल्लाह का दोस्त अल्लाह की मुहब्बत में चल बसा।
इतिहासज्ञों ने शोध करने पर पाया कि नागौर के ख्वाजा हसन से जब सन् 1464 ईस्वी में मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी के साहबजादे सुल्तान गयासुद्दीन ने मुलाकात की, तो उनकी प्रेरणा से ही उन्होंने ख्वााजा साहब की कब्र पक्की करवाई गई और उस पर एक छोटे से गुम्बद की तामीर की गई। सन् 1526 के बाद जब भारत में मुगल शासन काल स्थापित हो गया तो बाबर के पौत्र और हुमायूं के फरजंद मुगल बादशाह अकबर ने अपनी पहली अजमेर यात्रा के दौरान अकबर के किले के साथ मजार का निर्माण भी शुरू करवाया। निर्माण कार्य 1570 ईस्वी में पूरा हो गया। इसका जिक्र निजामुद्दीन अहमद ने तबकात ए अकबरी में किया है। इसका जिक्र अबुल फजल ने भी किया है।
दरगाह का मुख्य दरवाजा उत्तर दिशा में है, जबकि अन्य पांच में दो पूरब दिशा में और तीन पश्चिम दिशा में हैं। मुख्य दरवाजा हैदराबाद के निजाम ने 1915 में बनवाया। हालांकि बताते हैं कि इससे भी पहले दरवाजों का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां के कार्यकाल में ही हो चुका था। शुरू में लकड़ी के दरवाजे थे, लेकिन बाद में मुंबई के एक व्यापारी ने निकल का दरवाजा भेंट किया। मौजूदा निजाम दरवाजे के नीचे जो सीढिय़ां बनी हुई हैं, वे अकबर के शासनकाल में इस कारण बनवाई गईं ताकि अंदरकोट का पानी बह कर दरवाजे में दाखिल न हो। मुख्य दरवाजे को नक्कारखाना भी कहा जाता है, क्योंकि इसके ऊपर दो नक्कारे लगे हुए हैं। बादशाह अकबर ने बुलंद दरवाजा बनवाते समय सेहन चिराग भी भेंट किया था। मुख्य दरवाजे के अंदर 140 फीट लंबे और 140 फीट ही चौड़े आंगन में घुसने के साथ ही एक मस्जिद दिखाई देती है। यह मस्जिद और दरवाजा फतेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे की तर्ज पर बना हुआ है। मस्जिद की मरम्मत 1901 ईस्वी में दानापुर के नवाब गफूर अली ने करवाई थी।
बुलंद दरवाजे में दाखिल होने के बाद दो देंगे दिखाई देती हैं। एक देग 1567 में बादशाह अकबर ने भेंट की। उस वक्त उन्होंने दरगाह को 18 गांव भी भेंट किए थे, जिनकी आय से लंगर चलता था। इसके बाद 1613 में जहांगीर ने दूसरी देग भेंट की, जिसको आगरा में बनवाया था। पास ही मौजूद महफिलखाने का निर्माण 1889-89 में जनाम बशीरुद्दीन साहब ने करवाया। महफिलखाने में सामने ही एक टांका है, जिसका पानी वजू के काम आता है। सन् 1911 में इंग्लैंड की महारानी मेरी ने 1500 रुपए की लागत से इसका पुनरुद्धार करवाया। ऐसा माना जाता है कि बुलंद दरवाजे के दाहिने ओर जो मस्जिद है, उसका निर्माण भी मांडू के सुलताल महमूद खिलजी ने करवाया था, लेकिन जहांगीर की आत्मकथा से पता लगता है कि इसका निर्माण उनके शासनकाल में 1610 में हुआ।
मस्जिद से जुड़ी दूसरी इमारत संदलखाने के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका पुररुद्धार 1897 में जहांगीराबाद के नवाब ईशाक खान ने करवाया। मस्जिद के उत्तर में चमेली का पेड़ है। यहीं पर ख्वाजा साहब की दो बीवियों का दफनाया गया। बेगमी दालान का निर्माण 1641 में बादशाह शाहजहां के बेटी जहांआरा बेगम के आदेश से करवाया गया। जहांआरा के इंतकाल के बाद उन्हें यहीं पर दफनाया गया। बेगमी दालान की दीवारों पर जो संगमरमर का काम है वह 1888 में रामपुर के नवाब मुख्तार अली खान ने करवाया। मजार में प्रवेश के लिए जो दरवाजा है, उसका निर्माण नूरजहां बेगम ने करवाया। शाहजहां के इंतकाल के बाद उनके पुत्र औरंगजेब ने दरगाह की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
दरगाह में लकड़ी का कटहरा जहांगीर ने 1616 में बनवाया। दूसरा चांदी का कटहरा आमेर नरेश जयसिंह ने 1730 में भेंट किया। इसमें 42 हजार 961 तोला चांदी काम में आई है। बाहर का शामियाना बड़ौदा के गायकवाड़ नरेश ने बनवाया। दरगाह के आंगन में ही उस भिश्ती निजामुद्दीन की भी कब्र है, जिसने 1539 में बादशाह हुमायूं की जान बचाई थी और उसकी एवज में उसे एक दिन का बादशाह बनाया गया। उसी ने चमड़े के सिक्के चलाए थे। निजामुद्दीन भिश्ती की कब्र पर शामियाना तना रहता था और एक भिश्ती वहां जल सेवा किया करता था। बादशाह औरंगजेब ने अपनी पहली यात्रा के दौरान शामियाने से ख्वाजा साहब की मजार की गलतफहमी होने के कारण शामियाना हटवा दिया और भिश्ती को भी नौकरी से हटा दिया था।
दरगाह के भीतर खिड़की दरवाजा पर शेख मीर की कब्र है, जो औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच 1659 में दौराई में हुए युद्ध में दाराशिकोह की सेना का सिपहसालार था। इसी के पास मल्लू खान की कब्र है, जिसे मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन ने अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया था। कर्नाटकी दालान का निर्माण कर्नाटक के नवाब बालाजहां ने 1793 में करवाया था। दरगाह और झालरा के बीच मोहम्मद तफी बक्श की कब्र है, जो अकबर के शासनकाल में 1605 तक अजमेर का मुगल सूबेदार था। दरगाह में जामा मस्जिद का निर्माण 1638 में शाहजहां की पुत्री जहांआरा के आदेश से किया गया। यह आगरा किले की मोती मस्जिद की तर्ज पर बनी हुई है। इसमें सुनहरी अक्षरों में कलमा खुदा हुआ है। 33 छंदों के इस कलमें में खुदा के 99 नाम अंकित हैं। यह काम जहांगीर ने 1617 में अपनी मेवाड़ विजय के बाद करवाया था। यहीं पर 16 खंबे भी आकर्षक हैं। इनका निर्माण 1638 में हुआ। इसे अलाउद्दीन की कब्र भी कहा जाता है। वह शाहजहां के शासनकाल में दरगाह का दीवान था। वह ख्वाजा साहब का वंशज था। उसका इंतकाल 1633 में हुआ। दरगाह में एक बालिश्त की छतरी भी आकर्षण का केन्द्र है।
-शिव शर्मा
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