पृथ्वीराज चौहान ने अजमेर को दी सांस्कृतिक विरासत

पृथ्वीराज चौहान जयंती 23 मई पर विषेष
Prathvi Raj Chouchanअजमेर और दिल्ली पर राज करने वाले भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) न केवल एक उद्भट योद्धा और कुषल सेनानायक थे वरन् बहुभाषा और कलाओं के भी मर्मज्ञ थे। उन्होंने अजमेर को अनेक सांस्कृतिक विरासतों से समृद्ध किया। गुरू रामपुरोहित से षिक्षा प्राप्त करने वाले पृथ्वीराज संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रष आदि छः भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने गणित, वाणिज्य का भी अध्ययन किया। वे युद्धकौषल, शस्त्रविद्या, कुष्ती आदि के साथ-साथ संगीत, चित्रकला और कविता इत्यादि कलाओं में भी पारंगत थे। दरबार में विद्वानों का शास्त्रार्थ हुआ करता था और पृथ्वीराज उसमें निर्णायक की भूमिका का निर्वहन करते थे। एक बार जैन विद्वान जिनपति सूरी और पद्मप्रभा में शास्त्रार्थ हूुआ और सूरी विजयी हुए, तब स्वयं पृथ्वीराज ने हाथी पर सवार होकर सूरी के निवास पर जाकर विजय पत्र भेंट कर सम्मानित किया। यह पृथ्वीराज की विद्वता और साधकों के प्रति सम्मानभाव का परिचायक है।
पृथ्वीराज की सभा में कवि चन्दबरदाई के अलावा कष्मीर के जयानक और विद्यापति गौड़, जनार्दन, विष्वरूपा और बागेष्वर जैसे विद्वान भी थे। उनके मित्र के रूप में परिचित चन्दबरदाई ने लोकप्रिय ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो‘ और कवि जयानक ने महाकाव्य ‘पृथ्वीराज विजय‘ की रचना की, यह संस्कृत में है। ये दोनांे ग्रंथ राजस्थानी की साहित्यिक धरोहर हैं। उस समय संस्कृत भाषा ही सम्पूर्ण भारत में विद्वानों की भाषा थी। महल में पृथक चित्रषाला बनी हुई थी। चित्रकारों और नृत्यांगनाओं को भी पृथ्वीराज की सभा में बहुत सम्मान मिला करता था। तब आषु कवियों का बहुत बोलबाला था, खड़िया से तख्ती पर रचना लिखकर फिर उसे सुनाने की प्रथा प्रचलित थी। विजेताओं को ‘जय-पत्र‘ दिया जाता था।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार पृथ्वीराज रोज प्रातः नगरखाने में शहनाई की मधुर ध्वनि के साथ उठकर सर्वप्रथम कपिला गाय के दर्षन कर प्रणाम किया करते थे। पूजा-ध्यान की प्रातःकालीन वेला में अजमेर की गलियों में वेदमंत्रों की ध्वनि गूँजायमान होती थी। प्रत्येक घर में यज्ञषाला व अग्निहोत्र होता था। बालकों को षिक्षित करने वाले षिक्षा केन्द्र भीनमाल में 45 हजार ब्राह्मण निवास करते थे, जो पुराण, आयुर्वेद, नाट्यषास्त्र, ज्योतिष आदि सभी विधाओं में विज्ञ थे।
पृथ्वीराज के परदादा अजयदेव जिन्हें अजयराज या अजयपाल भी कहा जाता है, ने इस नगर का पुनर्निमाण कर अजयमेरू राज्य की स्थापना की थी तथा बीठली पहाड़ी पर अभेद्य दुर्ग ‘गढ़बीठली‘ या अजयमेरू दुर्ग का निर्माण भी करवाया, इसे हम तारागढ़ के नाम से जानते हैं। दादा अर्णाेराज या आनाजी ने यामिनी सुल्तान को यहाँ पराजित किया और युद्धस्थल को पवित्र करने के लिए खुदाई करवाकर आनासागर झील का निर्माण करवाया। काका विग्रहराज या बीसलदेव ने ‘सरस्वती कण्ठाभरण‘ संस्कृत विद्यापीठ का निर्माण करवाया, यहाँ पूरे चौहान साम्राज्य से बच्चे पढ़ने आते थे। इसका स्थापत्य सौंदर्य विष्वविख्यात है। इसे ही आज अ़ढ़ाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है।

उमेश चौरसिया
उमेश चौरसिया
विग्रहराज ने ही आषापूरी का मंदिर भी बनवाया। पिता सोमेष्वर ने प्रसिद्ध वैद्यनाथ (बैजनाथ) सहित पांच मंदिरों का निर्माण करवाया। पृथ्वीराज चौहान ने इन सभी पूर्वजों की धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं का निष्ठापूर्वक निर्वहन करते हुए अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। पृथ्वीराज विजय में लिखा है कि इन देवमंदिरों के कारण ऐसा लगता था कि सम्पूर्ण देवालय ही स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गया हो।
-उमेश कुमार चौरसिया
रंगकर्मी व साहित्यकार, 9829482601

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