अब भी मौजूद हैं स्व. किशन मोटवानी के नामलेवा

यूं तो पूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी को लगभग भुला सा दिया गया है, मगर दो सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ताओं का जज्बा देखिए कि उनकी पहल पर मोटवानी की जयंती पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें मोटवानी के भाई चंद्रभान मोटवानी सहित अनेक कांग्रेसजन ने भाग लिया।
आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में दौरान एक दावेदार ऐसे भी थे, जो प्रतिदिन किसी न किसी संस्था प्रमुख, समाज प्रमुख अथवा व्यापारी से भेंट अग्रिम समर्थन मांगते हुए फेसबुक पर दिखाई देते थे। नाम है लक्ष्मण तोलानी। वे कांग्रेस सेवादल के पुराने कार्यकर्ता हैं। उन्होंने पिछली बार भी जयंती कार्यक्रम किया था। एक और कार्यकर्ता हैं सोना धनवानी, जो लोकसभा उपचुनाव व विधानसभा चुनाव के दौरान यकायक उभरे और अतिरिक्त सक्रियता के चलते खासा चर्चित रहे। इन दोनों ने अपने स्तर पर कांग्रेसजन से संपर्क साधा और कार्यक्रम में आमंत्रित किया। कांग्रेस विचारधारा के ही वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रमेश टिलवानी ने प्रयास कर मोटवानी के भाई चंद्रभान मोटवानी की कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज करवाई। खारीकुई क्षेत्र के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अशोक दूलानी ने भी सक्रियता दिखाई, जो कि मोटवानी से जुड़े हुए थे।
इस मौके पर प्रमुख रूप से चर्चा यही रही कि जिस शख्स ने अजमेर की जीवनदायिनी बीसलपुर पेयजल परियोजना की शुरुआत करवाई, आज उनको उस स्तर पर याद नहीं किया जाता, जितना अपेक्षित है। यहां तक कि उनके नाम को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। सच तो ये है कि मोटवानी के कार्यकाल में भरपूर उपकृत हुए लोग आज शहर में मौजूद हैं, मगर वे भी गाहेबगाहे मोटवानी को याद नहीं करते। यहां तक कि मोटवानी से लाभ हासिल करने वालों की औलादें अब भाजपा का रुख कर चुकी हैं। हां, यह सही है कि जब भी मोटवानी के नाम का जिक्र आता है तो हर कोई यह कहता है कि उनके मुकाबले का दूसरा नेता फिर नहीं हुआ, विशेष रूप से सिंधी समाज में। मगर चर्चा भर हो कर रह जाती है। पिछले कांग्रेस राज के दौरान नगर सुधार न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत के कार्यकाल में जरूर मोटवानी के नाम पर किसी मार्ग या चौराहे का नामकरण अथवा किसी आवासीय योजना को उनके नाम पर करने पर तनिक गंभीर चिंतन हुआ, मगर उस पर आगे कार्यवाही हो नहीं पाई।
असल में किसी भी नेता को मृत्योपरांत लंबे समय तक तभी याद किया जाता है, जबकि उसके परिवारजन अथवा निजी तौर गहरे जुड़े समर्थक प्रयास करते हैं। ऐसा मोटवानी के साथ नहीं हो पाया। एक कहावत है न कि काजी जी की बकरी मरी तो पूरा गांव आया, और काजी जी मरे तो कोई नहीं आया। स्वाभाविक है, आए तो अपना चेहरा किसे दिखाए, जिसे दिखाना होता है, वह तो अब देखने को मौजूद नहीं है। बहरहाल, जबकि मोटवानी को लगभग भुला दिया गया है, उनकी मृत्यु के अनेक साल बाद कुछ सामान्य कार्यकर्ताओं का जज्बा वाकई सराहनीय है।

-तेजवानी गिरधर
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