दरगाह कमेटी का एक सदस्य हिंदू भी होना चाहिए

Dargaah 28महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सालाना उर्स को नजदीक देख अरसे से लंबित पड़े दरगाह कमेटी के पुनर्गठन की मांग तो पूरी हो गई, मगर इसमें नौ में से सात के बाहरी होने व दो स्थान खाली रखे जाने पर यह मांग उठ रही है कि इन्हें स्थानीय और वो भी खादिमों से भरा जाना चाहिए। तर्क ये दिया जा रहा है कि चूंकि खादिम दरगाह की रसूमात से बेहतर वाकिफ है और खादिमों व जायरीन की परेशानियों का भी उन्हें बेहतर इल्म है, इस कारण उन्हें भी तवज्जो दी जानी चाहिए। तर्क में दम भी नजर आता है। मगर मेरे एक मित्र, जो कि युवा मुस्लिम नेता हैं, ने इच्छा जाहिर की कि चूंकि दरगाह की जियारत करने वालों में हिंदू भी बहुतायत में होते हैं, इस कारण एक हिंदू को भी कमेटी का सदस्य बनाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि चूंकि वे मुस्लिम हैं, इस कारण अगर इस किस्म की मांग करते हैं तो हिंदू खुश हो न हों, मुस्लिम जरूर नाराज हो जाएंगे, सो इस मांग पर आप ही अपनी ओर रोशनी डालिए। बात मुझे भी जंची। सो पेश इस मांग या पेशकश पर मेरा नजरिया:-
सच तो ये है कि पूरे साल का आंकड़ा निकाला जाए तो मुस्लिमों से कहीं अधिक हिंदू यहां जियारत करने आते हैं। अगर यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण भी मान ली जाए तो इतना तो तय है कि हिंदुओं की बड़ी तादाद यहां मत्था टेकने आती ही है। संभव है उनमें से कई मात्र पर्यटन की दृष्टि से ही आते हों। उनकी भी अपनी अपेक्षाएं हो सकती हैं। अत: हिंदुओं का प्रतिनिधित्व भी कमेटी में होना चाहिए। जब एक ओर इस दरगाह को दुनियाभर में सांप्रदायिक सौहाद्र्र का सबसे बड़ा मरकज माना जाता है और वाकई ख्वाजा साहब को चाहने वालों में मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य धर्मों को मानने वालों का भी इस मुकाम पर अकीदा है तो गैर मुस्लिम को भी कमेटी में होना ही चाहिए। अगर कमेटी में एक हिंदू को शामिल किया जाए तो यह सांप्रदायिक सौहार्द्र की इस मिसाल के लिए एक और बड़ी मिसाल हो सकती है। इससे इसके गैर सांप्रदायिक स्वरूप में चार चांद लग जाएंगे। सच तो ये है कि सूफी मत के इस कदीमी आस्ताने की सार्थकता भी इसी में होगी कि यहां की इंतेजामिया कमेटी में एक हिंदू भी हो। तब जो संदेश पूरी दुनिया में जाएगा, उसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
इस पाक मरकज के प्रति हिंदुओं में कितनी आस्था है, इसका अनुमान इन चंद उदाहरणों से लगाया जा सकता है। दरगाह शरीफ के आस्ताने में चांदी का एक कटहरा आमेर नरेश जयसिंह ने 1730 में भेंट किया। इसमें 42 हजार 961 तोला चांदी काम में आई है। बाहर का शामियाना बड़ौदा के गायकवाड़ नरेश ने बनवाया। हैदराबाद रियासत के महाराजा किशनप्रसाद पुत्र की मुराद लेकर यहां आए और आम आदमी की सुबकते रहे। ख्वाजा साहब की रहमत से उन्हें औलाद हुई और उसके बाद पूरे परिवार के साथ यहां आए। उन्होंने चांदी के चंवर भेंट किए, सोने-चांदी के तारों से बनी चादर पेश की और बेटे का नाम रखा ख्वाजा प्रसाद। जयपुर के मानसिंह कच्छावा तो ख्वाजा साहब की नगरी में आते ही घोड़े से उतर जाते थे। वे पैदल चल कर यहां आ कर जियारत करते, गरीबों को लंगर बंटवाते और तब जा कर खुद भोजन करते थे। राजा नवल किशोर ख्वाजा साहब के मुरीद थे और यहां अनेक बार आए। मजार शरीफ का दालान वे खुद साफ करते थे। एक ही वस्त्र पहनते और फकीरों की सेवा करते। रात में फर्श पर बिना कुछ बिछाए सोते थे। उन्होंने ही भारत में कुरआन का पहला मुद्रित संस्करण छपवाया। जयपुर के राजा बिहारीमल से लेकर जयसिंह तक कई राजाओं ने यहां मत्था टेका, चांदी के कटहरे का विस्तार करवाया। मजार के गुंबद पर कलश चढ़ाया और खर्चे के लिए जागीरें भेंट कीं। महादजी सिंधिया जब अजमेर में शिवालय बनवा रहे थे तो रोजाना दरगाह में हाजिरी देते थे। अमृतसर गुरुद्वारा का एक जत्था यहां जियारत करने आया तो यहां बिजली का झाड़ दरगाह में पेश किया। इस झाड़ को सिख श्रद्धालु हाथीभाटा से नंगे पांव लेकर आए। जोधपुर के महाराज मालदेव, मानसिंह व अजीत सिंह, कोटा के राजा भीम सिंह, मेवाड़ के महाराणा पृथ्वीराज आदि का जियारत का सिलसिला इतिहास की धरोहर है। बादशाह जहांगीर के समय राजस्थानी के विख्यात कवि दुरसा आढ़ा भी ख्वाजा साहब के दर पर आए। जहांगीर ने उनके एक दोहे पर एक लाख पसाव का नकद पुरस्कार दिया, जो उन्होंने दरगाह के खादिमों और फकीरों में बांट दिया।
इसी प्रकार गुरु नानकदेव सन् 1509 में ख्वाजा के दर आए। मजार शरीफ के दर्शन किए, दालान में कुछ देर बैठ कर ध्यान किया और पुष्कर चले गए।
अंग्रेजों की खिलाफत का आंदोलन चलाते हुए महात्मा गांधी सन् 1920 में अजमेर आए। मजार शरीफ पर मत्था टेकने के बाद गांधीजी ने दरगाह परिसर में ही अकबरी मस्जिद में आमसभा को संबोधित किया था। स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी दरगाह की जियारत की और यहां दालान में सभा को संबोधित किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू व उनकी पत्नी विजय लक्ष्मी पंडित और संत विनोबा भावे भी यहां आए थे। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी कई बार दरगाह आईं। एक बार वे संजय गांधी को पुत्र-रत्न (वरुण)होने पर संजय, मेनका व वरुण के साथ आईं और इतनी ध्यान मग्न हो गईं कि चांदी का जलता हुआ दीपक हाथ में लिए हुए काफी देर तक आस्ताना शरीफ में खड़ी रहीं। वह दीपक उन्होंने यहीं नजर कर दिया। राजीव गांधी व संजय भी आए। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी दरगाह जियारत कर चुकी हैं। इसी प्रकार देश के अन्य अनेक प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री सहित फिल्मी जगत की हस्तियां यहां आती रहती हैं।
आइये, जरा इस मसले के दार्शनिक पहलु पर भी नजर डाल लें। हिंदुस्तान की सरजमी पर अजमेर ही एक ऐसा मुकद्दस मुकाम है, जहां महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हर धर्म, मजहब, जाति और पंथ के लोग हजारों की तादात में आ कर अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं। कहने भर को भले ही वे इस्लाम के प्रचारक हैं, मगर उन्होंने इस्लाम के मानवतावादी और इंसानियत के पैगाम पर ज्यादा जोर दिया है, इसी कारण हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी बिना किसी भेदभाव के यहां आ कर सुकून पाते हैं। ख्वाजा साहब के बारे में यह उक्ति बिलकुल निराधार है कि वे इस्लाम का प्रचार करने भारत आए थे। ऐसे मिथक उन कट्टरपंथी लोगों के हो सकते हैं जो कि इंसानी जिंदगी के हर पहलु को कट्टर धार्मिकता से जोड़ते हैं। वे किसी भी धर्म से जुड़ी अन्य उदारवादी और मानवतावादी विचारधाराओं के अंतर को समझने में असमर्थ हैं। वे नहीं जानते कि दुनिया के सभी मूल धर्मों से उदित कुछ ऐसी विचारधाराएं भी हैं, जो कि मानव समाज में अपना अलग ही आध्यात्मिक महतव रखती हैं। वे विचारधाराएं भले ही अपने-अपने धर्मों से जुड़ी हुई हैं, मगर उनका एक मात्र मकसद मानव की सेवा करना है। जैसे मूल हिंदू धर्म से निकली रहस्यवादी विचारधाराएं, ईसाई धर्म से निकाल वैराग्यवाद और इस्लाम से निकली सूफी विचारधारा। इसी प्रकार अनेक मत और पंथ अपने धर्म के आडंबरों से मुक्त हुए और उन्होंने सारा जोर मानव की सेवा में ही लगा दिया। ख्वाजा साहब का मूल धर्म हालांकि इस्लाम ही था, लेकिन वे इस्लाम व कुरान के मानवतावादी पक्ष में ही ज्यादा विश्वास रखते थे। यदि सूफी दर्शन का गहराई से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि एक सूफी दरवेश केवल इस्लामी शरीयत का पाबंद नहीं होता, बल्कि उसकी इबादत या तपस्या इन मजहबी औपचारिकताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती है। इस्लाम धर्म के मुताबिक पांच वक्त की नजाम अदा करना, रमजान के महिने में तीन रोजे रख लेना, खैरात-जकात निकाल देना, हज को चले जाना तो सभी मुसलमान अपना मजहबी फर्ज समझ कर पूरा करते हैं, लेकिन एक सूफी संत के लिए अल्लाह ही इतनी सी इबादत करना नाकाफी है। वह केवल तीस रोजे से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि पूरे 365 दिन रोजे पर रहना पसंद करता है। वह एक या दो हज नहीं बल्कि अपनी आध्यामिक शक्ति से सैकड़ों हज करने में विश्वास रखता है। एक सूफी शायर ने कहा है कि दिन बदस्त आवर कि हज्जे अकबरस्त यानि किसी दीन-दु:खी के दिल को रख लेना या उसे खुश कर देना एक बड़े हज के समान है। इस नेक काम को हर सूफी संत बढ़-चढ़ कर अंजाम देता है। इसी कारण उसकी मान्यता यही रहती है कि उसे अल्लाह ने इस जमीन पर भेजा ही इसलिए है कि वह दीन-दु:खियों की ही सेवा करता रहे। सूफी मत की सबसे प्रबल अवधारणा ही यही है कि सभी धर्मों का प्रारंभ आत्मिक व आध्यात्मिक चिंतन से है। जब धर्म आत्मिक केन्द्र से हट जाते हैं तो उनमें केवल आडंबर और औपचारिकताएं शेष रह जाती हैं। वे धार्मिक उन्माद, कट्टरता और सांप्रदायिकता के रूप में ही प्रकट होती हैं। सूफी मत की मान्यता है कि एक आत्मविहीन धर्म पूरे सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देता है। इसी असंतुलन की वजह से ही समाज में विद्वेष फैलता है और सांप्रदायिक दंगे भी इसी के देन हैं। सूफी मत के अनुसार किसी भी धर्म की पूर्ण परिभाषा और आत्मा उसके अध्यात्मिक रूप में ही निहित है, औपचारिकता में नहीं। यही वजह है कि दार्शनिक दृष्टि से गरीब नवाज के सूफी दर्शन और भारत के प्राचीन एकेश्वरवाद, एकात्म में पर्याप्त समानता है।
लब्बोलुआब, पेशकश ये है कि दरगाह कमेटी में एक हिंदू भी होना चाहिए और यह मांग किसी हिंदू संगठन को करने की बजाय पहल करके दरगाह से सीधे जुड़े खादिमों को करनी चाहिए, जिनके लिए आने वाला हर जायरीन, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, एक समान है। आखिर ख्वाजा साहब में अकीदा रखने वाला पूरे मुल्क का हिंदू भी मुस्लिमों की तरह उनका हाथ यूं ही श्रद्धा के साथ नहीं चूमता। ऐसी हिंदू जमात को भी तवज्जो दी जानी चाहिए। बहरहाल, चूंकि यह मांग पहली बार सामने आई है, इस कारण संभव है कि यह खादिमों व मुस्लिमों को असहज करे ही, कट्टवादी हिंदुओं को भी नहीं रुचे, मगर यह खुले दिल-ओ-दिमाग से विचारणीय तो हो ही सकती है।
-तेजवानी गिरधर

3 thoughts on “दरगाह कमेटी का एक सदस्य हिंदू भी होना चाहिए”

  1. तेजवाानी जी इसके लिये पहले दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट में संशोधन की आवश्यकता है क्योकि मोजूदा एक्ट में तो सिर्फ हनफी मुस्लिम को सदस्य बनाने का प्रावधान है इसमें गैर हनफी को भी सदस्य नहीं बनाया जा सकता तो यह सरकार हिन्दू को क्या बनाऐगी

  2. वा क्या बात कही खादिम को दरगाह कमेटी का सदस्य बना दिया जाये ?
    अभी तक उन्होंने जायरीनों को परेशान करने और धक्के देने के आलावा कोई काम किया है ? जो अब करेंगे ?
    बिचारे जायरीन जो दूर दराज से दरगाह आते हैं उन्हें ख्वाजा साहेब के मजार के पास तक नहीं जाने दिया जा रहा है , घंटों लाइन में लगवाया जा रहा है ….
    और दूसरी और आ जाये कोई फिल्म स्टार और नेता उनके लिए वर्तमान में वि.आई.पि गेट बनाये जा रहे हैं ?
    ये दर्द समझते हैं खादिम दरगाह आने वाले जायरीनों का ?

    अकबर , औरंगजेब , शाहजहाँ, जहांगीर , ने कौन से वि.आई.पि. गेट गा इस्तेमाल किया था जियारत करने के लिए ?

    बस पैसे दो तो खादिम साहेब 5 मिनट में जियारत करवा देंगे वरना खड़े रहो लाइन में या फिर बिना जियारत करे ही लौट जाओ अपने घर ।

  3. अगर खादिमों को दरगाह आने वाले जायरीनों का इतना ही दर्द होता तो , पूर्व में सरकार दरगाह कमेटी का निर्माण ही नहीं…

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