भाजपा ने कर्नाटक में मुंह की खाई, अपनी नाक भी कटवाई

प्रेम आनंदकर
कर्नाटक में आखिर भाजपा को जरूरत से ज्यादा होशियारी भारी पड़ गई। “ना नौ मन तेल था, ना राधा नाची।”, बहुमत नहीं था, फिर भी सरकार बनाई। राज्यपाल वजुभाई वाला ने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं किया और बहुमत नहीं होने के बावजूद येदुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया। यदि राज्यपाल की व्यवस्था के अनुसार 15 दिन में विधानसभा में फ्लोर टेस्ट होता तो हो सकता है, येदुरप्पा विधायकों को खरीद कर बहुमत साबित कर देते। वैसे भी सौ सौ करोड़ में विधायकों को “खरीदने” की तैयारी चल रही थी। अरे भाई अगर यही राशि जनता में बांट दी जाती तो हो सकता है, उसकी दुहाई काम आ जाती। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से खीझी बैठी कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा कर भाजपा व येदुरप्पा के मनसूबों, अरमानों, ओछे हथकंडों और विधायकों को खरीदने की मंशा पर पानी फेर दिया। भाजपा को खुद सीटों की गणित लगा कर आगे बढ़ना चाहिए था। लेकिन राज्यों में अपनी सरकार की गिनती बढ़ाने की लालसा में “उल्टे बांस बरेली चली।” राज्यपाल वजुभाई वाला तो कम से कम समझदारी से काम लेते। जब सारी गणित उनके सामने थी तो उन्होंने निष्पक्ष भूमिका क्यों नहीं निभाई। सीधा सा गणित था कि 78 सीटें कांग्रेस और 38 सीटें जेडीएस को मिली हैं और दोनों मिल कर सरकार बनाने का दावा कर रहे थे तो फिर उन्हें ही न्योता देकर बहुमत साबित करने का फरमान सुनाया जाता। यह सब जानते हुए भी राज्यपाल भीष्म पितामह की भूमिका नहीं निभा पाए। फ्लोर टेस्ट से पहले ही येदुरप्पा “रणछोड़ दास” बन गए। क्या फायदा हुआ उन पर भरोसा करने का। इससे तो बेहतर होता कि पहले ही जेडीएस व कांग्रेस को बुला लिया जाता। इससे भाजपा की नाक कटने से बच जाती। वैसे भी देखें तो भले ही भाजपा 112 सीटें जीत कर बड़े दल के रूप में उभरी, लेकिन वोटों का प्रतिशत जेडीएस व कांग्रेस से कम है। कुछ सीटें तो भाजपा ने बिल्कुल मार्जिन पर जीती हैं। शनिवार को कर्नाटक में घटा घटनाक्रम भाजपा के लिए बहुत बड़ा सबक है, जिससे उसे और उसके शीर्ष नेतृत्व को सीख लेनी चाहिए। हालांकि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट की शरण के रूप में तुरुप का पत्ता चल कर भाजपा को मात तो दे दी है, लेकिन उसे भी बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि बैसाखी पर लम्बी दूरी तय नहीं की जा सकती है। अमूमन तौर पर गठबंधन की सरकारों को जल्दी बिखरते हुए देखा गया है। और हां, जेडीएस व कांग्रेस क्या सोचती है कि भाजपा चुप बैठे जाएगी, कदापि नहीं। वह कर्नाट की साझा सरकार को चैन से नहीं बैठने देगी। जिस तरह किसी व्यक्ति को किसी चीज का लालच मुंह लग जाता है, उसी तरह भाजपा को भी राज्यों में अपनी सरकारों की गिनती बढ़ाने का चस्का मुंह लग गया है। किंतु वह यह भूल जाती है कि “क्वांटिटी” की जगह “क्वालिटी” महत्व रखती है। मौजूदा दौर में यदि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा की बात करें तो इन चारों राज्यों में भाजपा सरकारें वेंटिलेटर पर हैं। राजस्थान में सत्ता व संगठन में दरार पड़ी हुई है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खाली पड़ी हुई है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को जनसुनवाई में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है। यह तमाम हालात कहीं भाजपा के लिए खतरे की घण्टी ना बन जाएं। कहीं ऐसा ना हो कि यहां भी कर्नाटक जैसी पुनरावृत्ति हो जाए।

-प्रेम आनन्दकर, अजमेर, राजस्थान।

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