न्यूयॉर्क- चकाचोंध में उजाले के अर्थ

rasन्यूयार्क , एक शहर जो सपनो का सबसे बड़ा टावर बन दुनियाँ को लुभाता भी है और चिढाता भी है। गगनचुम्भी इमारतों और चुधियाती रौशनी से श्रृंगारित आवारा पूंजी का नग्न नृत्य सम्भवतः कुदरत के हर करिश्मे को नकारने की हिमाकत कर रहा है। इसे संगोग ही कहेंगे कि अमेरिका की आजादी के प्रतीक “स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी “के हाथो की मशाल में भी इसी चीख की आग महसुस होती है। तभी तो व्यसायिक अंहकार और शक्ति के दम्भ तले पलने वाला जीवन यहाँ अपनी उपस्थिति खोज रहा है। खोखली सम्पन्नता अपने होने को प्रमाण बटोर रही है। भारतीय प्रवासी भी इसका अपवाद नही हैं। वे दशको के संघर्ष के बाद बस खड़े होने लायक पाँव ही कमा पाये है, समानांतर दौड़ने की चाह में लगातार हॉफ रहे है। इतना सब कुछ होने के बाद भी वे अपनी भारतीयता को नही तज रहे हैं। खान-पान, रीति-रिवाज से लेकर आथित्य बोध से लवरेज है न्यूयार्क का प्रवासी भारतीय।
चाहे टंडन दम्पति हो जिनके अतिथि-कक्ष सभी प्रियजनों के लिए खुले है, चाहे धर्मपाल सिह सरीखे। दिलेर मित्र हो जो अपनी मस्ती के रंग में रंगे हो या फिर कोई इंद्रजीत शर्मा या आरती सिंह का अपनापन हो जिसमे माटी की गीलापन जिन्दा हो ।ये सब अमेरिका में भारत की पहचान बनकर महक रहे है।
उसी माटी से गढे रिश्तों की गंध लेकर हम कविता सुनाने इतनी दूर आते है ।इस उम्मीद में कि शब्द न केवल हमारे प्रवासी भारत के मन को पढ़ेगा बल्कि पश्चिम की अंधी चाकाचोध को उजाले के अर्थ भी बताएगा।
रास बिहारी गौड़

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