“संशय”

उर्मिला फुलवारिया
उर्मिला फुलवारिया
“शक “एक संगीन जाल है जिसके मन में शक रूपी पौधा फलीभूत हो जाता है वह शख्स जो कभी परिवार का निर्माता था। आज वो इसके वंशीभूत होकर संहारक व विनाशक की भूमिका अदा करने लग जाता है ,काश शक रूपी पौधे के अंकुरण के समय धैर्य, विश्वास व प्रेम अपने निज में बनाए रखता तो स्वयं अपने परिवार के विनाश का कारक नहीं बन पाता।
मानव मन की इसी कमजोरी के ताने-बाने को बुनते हुए “संशय” नामक कविता आपके समक्ष ले कर आई हूँ…..
“संशय”एक दिवस सहसा उषा काल में उन्नींदी पाँखे खोल में सुषुप्त हुई ।
वातायन की पवन मन को झकझोरते हुए चली ।
एक प्रश्न उभरा उर में उद्धिग्नताएँ आ बसी नयनों मे ।
भ्रांति ,संशय व भ्रम क्यों? लील लेता है जीवन को ।
कुलिश कलेजा विकराल अंगार सा बना देता है आजीवन को ।
मति भ्रमित हो स्वयं श्रीखण्ड़ को अंगार खण्ड़ बना ,ताड़व मचा देता है ।
स्वयं को निर्जनता में समेट अपनों पर नफरत का बाण चला देता है ।
पंजरगत ,दुर्बलता,रोदन से स्वयं को असहाय सा बना लेता है ।
तिल-तिल मरता अपनों के बीच बिन साहिल की नौका जैसे ।
मानव का पानी उतर जाता है मानवता लज्जित हो जैसे ।
घावो में सिमट इंसानियत हरी सी हो जाती है ।
क्रूर काल के हाथों मानव मूल्यों की बलि सी हो जाती है ।
वृथा साल हिय की मानव को तिलिस्म में आबद्ध कर लेती है ।
अपनों को पंजो में जकड़ प्यार की ग्रीवा मोड़ लेती हैं।
कभी रहते थे सदन में सानंद दो हंसो का जोड़ा ।
अपने रिश्ते को ही संशय से अभिभूत हो ,उपल से तोड़ा ।
जहन में जरा सी विश्वास की ज्योत्सना जगा देता ।
भ्रांति का बीज ,किवा प्यार से हटा देता ।
प्राण प्रिया की मनमोहक आभा को स्वयं में समा लेता ।
दुस्तर जीवन समर में संतापो पर फतह का जाम बना लेता ।
तंरगाघात पर अस्फुट हो विजय का पथ प्रशस्त कर लेता।
चाँद भी आँसमा की ओट से जरा मुस्करा लेता।
तिमिर भी उषा के उदभाव से गम भूला लेता।
पिक,कोयल,शिखी की बैखरी से सृष्टि चहक जाती।
श्रीखण्ड़ की सौरभीला से रत्नगर्भा भी महक जाती ।
प्रगाढ़ प्रेम से वंशीभूत हो महरसूत भी बाँसुरी की मधुर तान सुनाते।
तन्मय तल्लीन हो इंसा भी लाखों संतरगी ख्वाब बनाते।
प्यार संचित तप बन प्रभु से तादात्म्य करा देता ।
व्योम भी मेघ के रूप में अमृत रस छलका देता ।
वसुन्धरा को मदपूरित कर खुशियों का मदिरालय बना लेता ।
भ्रम,मोह-माया,,दुख, लोभ-लालच व नफरत को प्रेम की अग्नि से जला लेता।
विफलता सफलता में तब्दील हो नादमय हो जाती ।
धरा भी गगन से क्षितिज पर मिल आलिगन बद्ध हो जाती।।
उर्मिला फुलवारिया
पाली-मारवाड़ ( राजस्थान )

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