बेटी आसिफा को श्रद्धांजली

नए सन्दर्भों में मेरी एक पुरानी ग़ज़ल …..

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
नसीबों को शाख़ों पे खिलती हैं बेटी,
मुक़द्दर भला हो तो मिलती हैं बेटी.

कभी बनके मैना, कभी बनके कोयल,
घरों आंगनों में उछलती हैं बेटी.

जमा करती सर्दी में, बारिश में बहतीं,
अगर गर्मियां हो पिघलती हैं बेटी.

जलें ना जलें, हैं चरागाँ तो बेटे,
मगर हो अँधेरा तो जलती हैं बेटी.

नहीं आग पीहर में लगती किसी के,
पति के ही घर में क्यूँ जलती हैं बेटी.

ज़मीं छोड़ देती, जड़ें साथ लातीं,
पुरानी ज़मीं जब बदलती हैं बेटी.

जो रोया पिता उसको समझाया माँ ने,
कहाँ उम्र भर साथ चलती हैं बेटी…”

एक शेर और……

कोखों में बच कर जो हो जाएँ पैदा ,
दरिंदों की नज़रों को खलती हैं बेटी

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

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