राष्ट्रवाद और प्रणव दा

महेन्द्र सिंह भेरूंदा
कभी कभी जीवन ऐसे क्षण भी आते है जब अपने करीबी लोग और पारिवारिक सदस्य भी उनको समझने में , उनकी योग्यता के आंकलन में भूल कर जाते है और ऐसा अक्षर जीवन के अंतिम पड़ाव में अधिक होता हुआ देखा गया है ।
कुछ ऐसा ही प्रणव मुखर्जी पूर्व राष्ट्रपति के साथ इस सप्ताह में हुआ था उन्होंने कल सात जून को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समारोह में बतौर मुख्याथिति की स्वीकृति पर पार्टी में अंदर ही दबी जुबान से आलोचना का शिकार होना पड़ा यह सब उनकी उस पार्टी में हुआ जिसमे उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सेवा में रहते हुए अनेक पदों पर सफल राजनीतिक जीवन और एक पार्टी के लिए संकटमोचक के रूप में गुजारी थी वही पार्टी उन की योग्यता के आंकलन में चूक कर बैठी और यह तो पार्टी थी ऐसे वक्त में उनका परिवार ने भी गम्भीरता से उनकी योग्यता का आंकलन नही किया और परिणाम स्वरूप उनकी अपनी बेटी ने भी ट्यूटर के माध्यम से नसियत दे डाली जबकि प्रणव दा अपने विचारों व नीति पर अडिग रहने वाला व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते है उनकी इस मजबूती के कारण कईं बार नितिगत मामलों में पार्टी आलाकमान से भी आमना सामना हुआ था मगर सायद पार्टी के अंदर उन लम्हो को उनकी इस खासियत को विद्रोह के रूप में गिना होगा और इसी कारण से आंकलन में कांग्रेस मात खा गई और पार्टी व परिवार उनके स्वभाव और उनके अटल विश्वास को नापने में असफल रहे तो आरएसएस भी उनको बुलाकर अपने रंग में रँगने में पूर्णत असफल रही कल सफल तो प्रणव दा ही रहे उन्होनेअपने आपको विवादों से परे रखते हुए , अपने वैचारिक लाईन पर खड़े रहकर बुलाने वाले को राष्ट्रवाद पढ़ा गए और रोकने वालों को सही आंकलन और धर्य रखने की नशियत दे गए और यह भी बता गए कि मौका मिलने पर कैसे किसी के घर मे जाकर अपनी बात रखी जाती है और कैसे किसी राष्ट्रवाद के ठेकेदारो को हकीकत से अवगत कराया जा सकता है इस बात का कांग्रेस को प्रशिक्षण भी दे गए तथा देश को आज भी अपनी योग्यता का खम्भ गाड़ कर कल प्रणव दा विजयश्री पर आरूढ़ होकर नागपुर से रवाना हुए थे ।
महेंद्र सिंह भेरून्दा

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