अब पंचायत के रास्ते पूरा होगा सत्ता के शिखर का सफर !

देश में चुनावी माहौल अपने चरम पर है और इस साल के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद अगले साल की शुरुआत में लोकसभा चुनाव भी दस्तक देने जा रहे हैं। जहां अभी तक देश के किसी भी चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी शीर्ष पार्टियों का ही जिक्र होता आया हैं वहीं अब कुछ क्षेत्रीय स्तर की पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाने में कामयाब हो रही हैं। सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस पार्टी के कामों के प्रति असंतोष जाहिर करते हुए आम आदमी अब अन्य पार्टियों के प्रति भी अपना रुझान व्यक्त करने लगा हैं। इनमें से ज्यादातर पार्टियां बीजेपी-कांग्रेस के अलावा देश के ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों से संबंध रखती हैं जहां से किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए जीत या हार की दिशा तय होती हैं। कुछ राजनैतिक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि कांग्रेस ग्रामीण वोट बैंक की राजनीति में निपुण है जबकि भाजपा तुलनात्मक रूप से शहरों में अच्छा प्रदर्शन करती है। हालांकि पिछले कुछ चुनावों में इन दोनों दलों को लेकर बनी इस अवधारणा को काफी चोट पहुंची है।
हाल के कुछ चुनावों में ग्रामीण वोट बैंक पर गहरी पकड़ रखने वाली कांग्रेस को ग्रामीण इलाकों में ही भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है, जबकि कस्बाई और शहरी इलाकों को अपना गढ़ समझने वाली भारतीय जनता पार्टी ने ग्रामीण इलाकों में भी जबरदस्त प्रदर्शन किया। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि आगामी चुनावों में कांग्रेस के लिए बीजेपी को अपने वोटबैंक क्षेत्र से बाहर करना भी एक चुनौती होगी तो शायद यह सही हो बशर्ते बीजेपी एक बार फिर से 2014 आम चुनावों के नतीजे दोहराने में सफल हो, क्योंकि मौजूदा माहौल देखकर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि देश का मतदाता एक बार फिर बड़े सत्ता परिवर्तन की दिशा में अग्रसर होते नजर आ रहा है।
देश में कुछ छोटे स्तर की पार्टियां लोगों के बीच अपने प्रति विश्वास जगाने में सफल हो रही है। बिहार से लेकर बंगाल और असम से लेकर गुजरात तक ऐसी कई क्षेत्रीय पार्टियां हैं जो तेजी से जनता के बीच मजबूत पकड़ बना रही है। गरीबों और किसानों की बात करने वाली ये पार्टियां पंचायती राज व्यवस्था के नारे को बुलंद करने में जुटी हुई है। जिस प्रकार सत्ता के विकेंद्रीकरण पर आधारित पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य जनता को प्रशासन में भागीदार बनाना है, उसी प्रकार यह पार्टियां भी राष्ट्रीय राजनीतिक गतिविधियों में आम जन को अहम किरदार निभाने के लिए उत्साहित व प्रेरित कर रही है। खासकर ग्रामीण इलाकों या छोटे कस्बों से शुरुआत करने वाली ये पार्टियां जमीनी स्तर पर रहकर किसानों और गरीबों के बीच पहुंच, उनकी समस्याओं को रेखांकित करने का काम कर रही है।
ख़ास बात यह है कि इन पार्टियों या संगठनों की तमाम गतिविधियों को जन समूह का भी भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है। पत्रिका अख़बार के एक सर्वे पर ध्यान दें तो पाएंगे कि जो भी राजनीतिक दल ग्रामीण क्षेत्रों में पिछड़ा उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा। पिछले कुछ दशकों में हुए ज्यादातर चुनावों में तो यही देखने को मिला कि गावों में जिस पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया जीत का स्वाद भी उसी पार्टी ने चखा। तो ऐसे में एक सवाल उठना लाजमी है कि क्या ग्रामीणों और गरीबों के बीच अपनी जकड मजबूत करती ये क्षेत्रीय पार्टियां 2019 के आम चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के चुनावी समीकरणों को बिगाड़ने का काम करेंगी? हाल ही में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी हमें कई नई व क्षेत्रीय पार्टियों के दमखम को आंकने का मौका मिलेगा साथ ही देश की शीर्ष दिग्गज पार्टियों को भी इस बात का अंदाजा हो जाएगा कि उन्हें अगले साल के आम चुनावों में कितना नुकसान उठाना पड़ सकता हैं। लेकिन पंचायती राज की तीव्र आवाज ने इस बात के संकेत भी दे दिए हैं कि भविष्य के कुछ सालों में राजनीतिक दलों को सत्ता के शिखर पर बैठने के लिए पंचायत के रास्ते ही होकर गुजरना होगा।

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