जानिये चेतना की विभिन्न अवस्थाओं एवं स्तरों को

डा. जे. के. गर्ग
साधारण तोर पर चेतना के तीन स्तर माने जाते है यथा चेतन ,अवचेतन और अचेतन स्तर |
चेतन स्तर : चेतन स्तर पर वे सभी बातें रहती हैं जिनके द्वारा हम सोचते समझते और कार्य करते हैं । चेतना में ही मनुष्य का अहंभाव रहता है और यहीं विचारों का संगठन होता है।
अवचेतन स्तर : अवचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जिनका ज्ञान हमें तत्काल (तत्क्षण ) नहीं रहता, किन्तु उचित समय पर उन्हें याद किया जा सकता हैं ।
अचेतन स्तर : अचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जो हम भूल चुके हैं और जो हमारे यत्न करने पर भी हमें याद नहीं आतीं और विशेष प्रक्रिया से जिन्हें याद कराया जाता है | जो अनुभूतियाँ एक बार चेतना में रहती हैं, वे ही कभी अवचेतन मन मे और कभी अचेतन मन में चली जाती हैं। ये अनुभूतियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं होतीं , वरन् मनुष्य को अनजाने में ही सही प्रभावित तो करती ही रहती हैं।

चेतना की प्रमुख अवस्थाएँ

डा. जे.के.गर्ग
जागृत अवस्था —- जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता है । कल्पना लोक एक तरह से स्वप्न-लोक ही है । जब हम जब कभी अतीत की किसी याद में खोए हुए रहते हैं, तो उस व्यक्त हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह स्मृति-लोक भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है, अत: ठीक-ठीक रूप से वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
स्वप्न अवस्था—— स्वप्न अवस्था जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था होती है , थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से रहें ,ऐसी अवस्था मे अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है । इस यह घाल-मेली चेतना को ही स्वप्न की चेतना कहते हैं।
सुषुप्ति अवस्था—– चेतना की सुषुप्ति अवस्था हमारी समस्त इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। सुषुप्ति अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम की अवस्था में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया होने की संभावना, यही अवस्था सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है
तुरीय चेतना—-चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप । चेतना की चौथी अवस्था (तुरीय अवस्था) निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न , सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।
तुरीयातीत चेतना — यह चेतना की पाँचवी अवस्था है | इस अवस्था का आगमन जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद होता है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी यायोगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी एवं अतिमहत्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं है। सर्वश्रेष्ट,सर्वोतम,एवं सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था “योगस्थः कुरु कर्मणि” योग में स्थित हो कर कर्म करो | इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं । काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों ? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि “कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।” इस अवस्था को प्राप्त कर लेने वाला मनुष्य जीवन रहते रहते भी “जीवन-मुक्त” रहता है । चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
भगवत चेतना : बस मैं (जीव) और तुम (परमात्मा) वाली चेतना
चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है अथवा सच्ची भक्ति पाप्त होती है । भक्त को सारा संसार भगवन-मय या ईश्वर मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था “जित होती देखौं है, तित श्याम-मई है”। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।

ब्राह्मी-चेतना : एकत्व की चेतना चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवान का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का पूर्णतया से लोप हो जाता है। चेतना के इस विकास-क्रम की अवस्थाके सन्दर्भ में में संत कबीरदास जी ने कहा है “लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल ,लाली देखन मैं गई , मैं भी हो गई लाल “
सकंलन कर्ता — डा. जे. के. गर्ग

सन्दर्भ ——Anthropology of Consciousness, Journal of Consciousness Studies,Cognition Psyche, Science & Consciousness Review,ASSC e-print archive containing articles, book chapters, theses, conference presentations by members of the ASSC.,Stanford Encyclopedia of Philosophy, Levels of Consciousness, by Steve Pavlina

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