वैचारिकी- सघनतर अंधेरा

अपने आस-पास देखने पर अक्सर वक्त ठहरा हुआ सा जान पड़ता है। तमाम तरह की तरक्की और परिवर्तन के बावजूद आदमी का वजूद तो घटा ही है पर उसकी सामान्य सोच की गतिहीनता में भी किस्म- किस्म के जंग भी गए हैं। वह उन खुरचनों को अपनी मेधा समझने लग पड़ा है। किसी भी किस्म के विमर्श, स्वध्याय से उसी तरह परहेज करता है जैसे पिंजरे का जानवर खुली हवा से डरता है।
मैं या मेरी पीढ़ी के अधिसंख्य लोगो ने अकादमिक पढ़ाई को पेट से जोड़कर पढ़ा है। स्वम को समृद्ध करने के लिए किताबों के पास बहुत कम गए। साहित्य, दर्शन, धर्म, विज्ञान, राजनीति, कोई भी विषय हमें स्वभाविक रूप आकर्षित नहीं कर रहा था। मसलन राजनैतिक नायको को प्रथमिक स्तर पर आधा अधूरा पढ़ने के बाद वह सब सुना जो सुनने में रोमांचक और रहस्यमयी था। अंत मे अनुरूप मन की एक गढमढ़ सी मूर्ति गढ़ ली जिसकी या तो शेष जीवन पूजा करते रहे या फिर उसे खंडित करने में अपनी ऊर्जा लगाते रहे। ऊपर से सोशल मीडिया के आगमन से उस खुरचन, पूजा या खंडन को ज्ञान मानकर प्रचारित करने का सुलभ अवसर भी मिल गया। परिणामतः अज्ञान का अंधेरा सघन से सघनतर होता गया।
मेरी निजी रुचि चूंकि साहित्य में थी अतः पुस्तकों के भीतर आवाजाही जारी रही। मेरी ही तरह अनेक लोग थे जो अपनी रुचि या महत्व के कारण किताबों से बतियाते रहे। यदा कदा लिखते भी रहे। पुराने -नए लेखकों के माध्यम से अपना एक दृष्टिकोण खड़ा करते रहे। सूचना क्रांति में उसका उपयोग भी किया, कर रहे हैं। लेकिन बड़ा वर्ग जो, अकादमिक स्तर पर उच्च शिक्षा प्राप्त माना जाता है। न केवल किताबों से दूर रहा बल्कि उन्हें अपना शत्रु भी समझने लगा। संस्कृति, धर्म, लोक, देश, पंथ, न जाने किस किस आड़ में लिखने पढ़ने को बौद्धिक अय्याशी प्रचारित करने लगा। मेरे अनेक शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी, वर्ग के मित्र जो अपने क्षेत्र की किताबें पढ़कर ज्ञान को पद या पैसे से नापते हैं। विषय से इतर सच के पास फटकना उन्हें समय को बर्बादी लगता है, लेकिन अपनी बेबाक राय से दूसरों को खारिज करते जाते हैं।
यह वर्ग वही है जो मोहनजोदड़ो हड़प्पा को नकारते हुए सतयुग के सुर-असुर संग्राम को सच मानता है। इतिहास से लेकर धर्म, समाज, विज्ञान तक इसकी समस्त अवधारणाएं सुनी हुई दंतकथाओं पर आधारित हैं। यह जानना ही नहीं चाहता कि किसी भी धर्म के मूल में मानवीयता का पाठ होता है। अशोक, अकबर, अंग्रेजों से लेकर ग़ांधी, नेहरू, सुभाष, अम्बेडकर, तक सुनी सुनाई सनसनी सुनकर अपनी पीढ़ियों को नायक विहीन समय सौंप रहा होता है।
इस वर्ग से गुजारिश है कि कोई भी तथ्य आपके सामने आता है तो उसे उसके समय से जांच लो। वह जांच किताबों के पृष्ठों पर लिखी है। किताबें वामपंथी, दक्षिणपंथी, विदेशी या हिन्दू -मुस्लिम नहीं होती। गर नहीं पढ़ पाते तो यह आपकी कमीं है। इस कमी से लड़ना चाहिए। बनिस्पत,जो पढ़ते हैं आप उनसे लड़ रहे हैं।
यह बड़ा वर्ग, इन दिनों अतिरिक्त विस्तार पा रहा है। इसमें नई पीढ़ी उसी तरह शामिल हो रही है जैसे किसी बड़े नाले में घर की छोटी छोटी नालियां मिल जाती हैं। यह वर्ग किताबों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकार, दार्शनिक, इतिहासकारों को खलनायक सिद्ध करने पर आमादा है। पुस्तकों के अभाव में इसे अंधेरा अच्छा लगने लगा है। अंधेरे में खड़े आदमी को अंधेरा अच्छा लगता ही है। वहां किसी का कोई चेहरा दिखाई नहीं देता। वहाँ आवाजों की पहचान नहीं होती। वहाँ एक अंतहीन डर होता है। वहाँ सबसे ज्यादा डर उजाले से लगता है। अंधेरे में रहने वाला अंधेरे को सच मानता है, लेकिन अंधेरों का सच नहीं जानता है। बड़ी मुद्दतों और मेहनत से आदमी ने अपने उजाले रचे हैं। वे उजाले किताबों की शक्ल में हमारे आस पास बिखरे हैं। कहीं लेम्प पोस्ट बनकर चमक रहे है तो कहीं दिया बनकर टिमटिमा रहे हैं। हमें मिलकर इन्हें बुझने से औऱ बुझाने वालो से बचना चाहिए।
आँखें मूंदकर भीतर के उजाले में अपना चेहरा देखे। देखे कि आप अंधेरे में हैं या उजाले में। उत्तर किसी ना किसी किताब में ही मिलेगा। जो भी है किताबों से डरें नहीं ।आपके हर संदेह का जबाब वहाँ लिखा है। संस्कृति के मायने क्या है? धर्मग्रन्थों के भीतर क्या है? अशोक क्यों महान है?अकबर की क्या देन है? अंग्रेजो का दमन कैसा था? गौतम गांधी के मायने क्या है? नेहरू को क्यों भारत का निर्माता कहा जाता है? नफरत आखिरकार कितनी भयावय हो सकती है? वहां वह सब है जो सोशल मीडिया के प्रचारित झूठ को नंगा कर सकता है। सच से मोहब्बत करना सीखा सकता है। सम्भवतः आप हम अपने अंधेरे से बाहर आ जाएं। सम्भव है स्वम दीपक बनकर उजाले के वाहक बन जाएं। वरना चारो ओर मंडराते उल्लूओं और चमगादडों के लिए आपका यह अंधेरा वरदान है ही।

*रास बिहारी गौड़*

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