अपने अपने गांधी-2

*वीर सावरकर*

रासबिहारी गौड
गांधी जयंती जश्न का सबसे बड़ा विरोधभास वीर सावरकर हैं। गांधी के अनुयायी उनके प्रेम का संदेश भूलकर अपनी पूरी घृणा से सावरकर पर उढेल रहे हैं , उधर सावरकर के अनुयायी उनके सबसे बड़े वैचारिक शत्रु ग़ांधी के चश्मे और झाड़ू से अपना राजमार्ग बुहार रहे हैं।
वीर सावरकर को लेकर भारतीय राजनीति हमेशा दो धुर्वो पर खड़ी मिलती है। एक पक्ष उनके राजनीतिक विचार को देश की हिन्दू अस्मिता से जोड़कर उन्हें आराध्य होने की हद तक पूजता है। तो दूसरा उनके साम्प्रदायिक चेहरे की शिनाख्त के साथ ब्रिटिश साम्रज्यवाद के समक्ष समपर्ण और गोडसे से उनकी संबद्धता को रेखांकित करते हुए उनमें धूर्त खलनायक गढ़ता है। दोनों के अपने अपने ठोस तर्क भी होते हैं, लेकिन हर बार अतिवाद के विमर्श में हम सच से दूर और दूर होते जाते हैं।
वीर सावरकर का इतिहास में जिक्र यकीनन एक क्रांतिकारी के रूप में हैं। जो मेजिनी,गेरीबोल्ट जैसे क्रांतिकारियों से प्रेरित होकर स्वत्रंत्रता आंदोलन में कूदते हैं। उन्हें काला पानी की सजा होती है। वे अनेक शारीरिक और मानसिक यंत्रणा से गुजरते हैं। उनका शेष परिवार भी देश सेवा में लगा हुआ है। जबकि दूसरी ओर यह भी सत्य है कि वे जिन्ना की तरह हिन्दू राष्ट्र की बात करते हुए विभाजन के लिए परोक्ष वातावरण तैयार करते हैं। ब्रिटिश शासन से लिखित माफी और पेंशन पाते हैं। गोडसे उनका शिष्य है । गांधी हत्या में सलंग्नता बताई जाती है, जो साक्ष्यों के अभाव में सिद्ध नहीं होती। इन दो भिन्न कोणों से सावरकर का चेहरा नारों औऱ नफरत में के बीच झूलता नजर आता है। सरकारें उनका राजनीतिक दोहन करती हैं, आम जन सतह पर तैरता रहता है, विवेक अपने हथियार डाल देता है। हम किसी एक पाले में खड़े होकर सावरकर की आड़ में दूसरे नायको को अनावश्यक रूप से खंडित या मंडित करने लगते है। मसलन गांधी की महानता सावरकर को नकारा बताकर सिद्ध करते है या नेहरू को खारिज करने के लिए सावरकर को वीर मानने लगते हैं।
जब हम मानक के रूप में गाँधी को सामने रखते हैं तो वहाँ किसी भी किस्म की घृणा के लिए वैसे ही कोई जगह नही बचती। सकरात्मक पक्ष पर विचार करते हुए यह मानना पड़ेगा कि सावरकर ने क्रांति का पथ चुना, कष्ट सहे, योजनाएं बनाई और अपने श्रेष्ठतम विचार से या अपनी सीमाओं में ब्रिटिश शासन से समझौता किया। अपनी वैचारिक स्वत्रंत्रता के आधार पर गांधी विरोध को अपना मुखर समर्थन देकर ऐतिहासिक गलती की। परिणाम प्रतिकूल रहे अथवा उनकी समझ मे चूक हुई, यह अलग विषय है किंतु वे भी उसी राष्ट्रीय आंदोलन के एक सिपाई तो थे ही जो इतिहास का निर्माण कर रहा था। उनकी चूक पर बात हो सकती है लेकिन उनके योगदान को नकारना एक विशेष किस्म का निज आग्रह होगा। अलबत्ता अधिक महत्व देने की जिद भी उनके प्रति अनावश्यक विवाद को आमंत्रित करती है। भारतीय वैविध्य को वे चितपावन संस्कार से नहीं देख पाए, या यूं कहें वे अपने सामने का सच देख रहे थे, दूर के दृश्यों को पढ़ने में उनकी रुचि नहीं थी। मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सापेक्ष हिन्दू साम्प्रदायिकता का वे सबसे चकमदार चेहरा थे। हम साम्प्रदायिक शब्द से कितना ही परहेज करें किन्तु सदियों पुराना प्रवाह हमारी नसों में रक्त बनकर बहता ही। जिसे खत्म करने के चक्कर मे गांधी खुद खत्म हो गए। अतः सावरकर हिंदुत्व के बहाने समय की एक तात्कालिक आवाज थे, जो आज भी वातावरण में गूंज रही है। जिसे अनसुना किया जाना कम से कम अब असम्भव है। इस आवाज को सीमित आवृति के साथ सुना भी जाना चाहिए। अर्थातकि सावरकर के योगदान को उचित सम्मान मिलना चाहिये, लेकिन उन मानवीय मूल्यों की कीमत पर नहीं जो गांधी के देह पर गोलियां का औचित्य गढ़ रहे हो।
सावरकर के ग़ांधी चाहे जो हो पर गांधी के सावरकर नफरत की स्याही से लिखे हिन्दू नायक नहीं है। वे अपने काम की बदौलत अपनी जगह के लिए पहचान पाने वाले नायक है। वे हमारे हैं, उन्हें हमें सहेजना चाहिए।

*रास बिहारी गौड़*

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