*शूट आउट एट तेलंगाना* सलाम पुलिस

*अमित टण्डन*
पीटते रहो लकीर कि तेलंगाना पुलिस की मुठभेड़ फर्जी थी या सही। बजाते रहें मानवाधिकार वाले अपना ढोल कि पैर पर गोली मार कर जख्मी करते और पकड़ लेते। सियापे रोते रहें ढकोसलेबाज रूदाली ब्रांड सामाजिक एक्टिविस्ट कि मारे गए अपराधियों के गरीब माँ बाप/परिवार का क्या होगा, वो घर में कमाने वाले अकेले थे, अब उनके बूढ़े लाचार माँ बाप का पेट कौन पालेगा..!! उनमें एक नाबालिग था, उस पर तो दया करनी चाहिए थी.. वगैरह वगैरह
कैसी दया और कैसी मानवता?? अच्छा ही किया तेलंगाना पुलिस ने।
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अपराधी किस्म के लोगों के मन मे ये बात हौसला देती रही है कि हमारा क्या बिगड़ेगा, जेल में कुछ समय रह कर आराम से जमानत ले लेंगे, फिर सेशन कोर्ट, high कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट… फिर राष्ट्रपति के आगे दया याचिका। माने आराम से जीवन निकल जाता। दया याचिका मंज़ूर हो जाती तो रिहा भी हो ही जाते।
निर्भया केस का एक आरोपी नाबालिग होने का फायदा उठा कर रिहा हो चुका है। ऐसे में पीड़िता डॉक्टर रेड्डी की आत्मा को और मृतका के परिजन को इंसाफ नहीं मिल पाता। निर्भया के माता पिता 7 साल से न्याय की आस में हैं, मगर अदालत की तारीख और आश्वासन के सिवा अब तक कुछ नहीं मिला। हां, उम्मीद खत्म नहीं हुई है। भरोसा भी पूरा है कि निर्भया के दोषी फांसी पर लटकाए जाएंगे…।
मगर….; हां एक “मगर” है जो प्रश्नचिह्न बन कर निर्भया के माँ पिता सहित समस्त समाज को टीस दे रहा है कि आखिर और कितनी देर?
जघन्य से जघन्यतम अपराध में जल्दी न्याय नही मिलता तो दर्द झेलने वाला पक्ष रोज़ थोड़ा थोड़ा मरता है। निर्भया 7 साल पहले मर जाने के बाद आज भी मर रही है। उसके परिजन आज भी टुकड़ा टुकड़ा मर रहे हैं। ऐसे अपराधों में देर से न्याय मिलना पीड़ित पक्ष के साथ और बड़ा अन्याय है। देर से मिला न्याय बेमानी सा लगता है।
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आप देखें उन्नाव में जमानत मिलते ही कल गुनहगारों ने पीड़ित लड़की पर केरोसीन डाल कर आग लगा दी। एक अपराध से जमानत मिलते ही दूसरा जघन्य अपराध कर दिया। बेचारी लड़की 90 फीसदी से ज्यादा जल गई, शायद ही बचेगी। (ईश्वर उसे सलामत रखे, हौसला दे)
इसलिए, तेलंगाना पुलिस ने जो किया उसे एक संदेश के रूप में लेना ही चाहिए। वरना क्या होता..!
तारीख-पेशी, फिर घर परिवार की गरीबी की दुहाई, नाबालिग होने की दुहाई.…. साल दर साल बीत जाते, पीड़िता के परिजन कलपते रहते, आरोपी जेल में भी मजे करते।
तो क्या गलत हुआ..? ना अदालत, ना तारीख-पेशी, बस ताबड़तोड़ फैसला।
यदि जनता में अपराध नहीं करने के लिए डर जगाना है तो ऐसे बड़े जघन्य मामलों में अपराधियों को जल्द फांसी दें या एनकाउंटर करें। इससे अन्य घिनौनी मानसिकता के सैकड़ों लोग अपराध करने से पहले डरेंगे। उनमें अपने अंजाम का खौफ जागेगा। सौ में से पचास लोग भी भयवश अपराध छोड़ देंगे तो एक नई क्रांति आएगी। हर बार ऐसे जघन्य अपराध के गुनहगारों को तुरन्त मौत घाट उतारते रहने से हर बार सैकड़ों लोग सबक लेंगे। इंक़लाब एक दिन में या एक मामले में यूँ ताबड़तोड़ फैसला होने से नहीं आएगा। तुरन्त सज़ा की ये इंकलाबी पहल तो एक मशाल की तरह जली है। इस मशाल को एक वैचारिक रैली में तब्दील करना होगा। यूँ समझें कि हमें आज़ादी की लड़ाई लड़नी है। और कानून के दायरे में रह कर इस कुरूप मानसिकता आपराधिक गुलामी से आजादी सिर्फ पुलिस और न्यायपालिका दिला सकते हैं। आम जनता ऐसे ही अलख जगाती रहे, हौसला बढ़ाती रहे, और पुलिस व न्यायपालिका ऐसे कठोर व ठोस फैसले लेती रहे।
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कुछ उदारवादी (तथाकथित) अपराधी की गरीबी या नाबालिग होने की दुहाई देकर तेलंगाना पुलिस के एनकाउंटर का विरोध भी कर रहे।
उनसे ये सवाल है कि जिस लड़के को सेक्स करने का ज्ञान है, जिस लड़के में अपनी हवस बुझाने के लिए दरिंदगी करने का हौसला है, जिस लड़के में प्रोफेशनल किलर की तरह क़त्ल कर देने का विकृत विचार है.. वो कैसा नाबालिग??
आठ दस या 12-13 साल का बच्चा होता तो शायद इंटरनेट, यूट्यूब, पोर्न साइट्स, वेब सीरीज़ में दिखाए जाने वाली अश्लील और अपराध से भरी फिल्मों को दोष दे सकते थे। मगर निर्भया केस अथवा डॉक्टर रेड्डी मामले में तो लगभग सभी आरोपी बालिग थे। दोनो केस में सिर्फ एक एक आरोपी नाबालिग था। मगर कैसा नाबालिग। बस उसके बालिग होने में कुछ दिन या हफ्ते ही बाकी रहे होंगे। शक्ल से ही 18 वर्ष के नज़दीक दिख रहे थे। यानी लगभग बालिग थे। ऐसे में सही फैसला हुआ।
बल्कि अपराधियों के इस हश्र को इतना प्रचारित किया जाना चाहिए कि किसी महिला से बलात्कार तो दूर, उस पर गन्दी नज़र रखने से भी विभत्स मानसिकता वाले खौफ खाएं।
सलाम तेलंगाना पुलिस

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