स्वामीजी ने अपना सारा जीवन अपने गुरु रामकृष्ण परमहंसदेव को समर्पित कर दिया | विवेकानंद जी धार्मिक आडम्बरवाद, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने धर्म को मानव मात्र की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन-मनन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, रुढ़िवादी एवं अतार्किक मान्यताओं मानने वाला नहीं था। स्वामी जी ने उस समय क्रांतिकारी एवं विद्रोही बयान देते हुए कहा कि “ इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाये और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये “। उनका यह आह्वान आज भी एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर उस समय संपूर्ण पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई नामी गिरामी साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानंद ने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। स्वामी जी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था किंतु एक सच्चे वेदान्ती संत की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी।