मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ ने इस सन्दर्भ में 1998 में इसी न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि रिश्वत लेना विशेषाधिकारों के क्षेत्र से बाहर का मामला है जबकि 1998 में न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने इसे विशेषाधिकारों के क्षेत्र में रखते हुए निर्णय दिया था कि सदन के भीतर किये गये कार्यों के लिए सदस्यों को विशेषाधिकारों का संरक्षण एवं सुरक्षा प्राप्त होती है। अनुच्छेद 105/194 में प्रदत्त विशेषाधिकार सदस्यों के लिए एक भय मुक्त संसदीय वातावरण बनाने के लिए है न कि भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से संसदीय लोकतंत्र को बर्बाद करने के लिये हैं। सुप्रीम कोर्ट झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के रिश्वत कांड पर आए पूर्व आदेश पर विचार कर रहा था। आरोप था कि सांसदों ने 1993 में नरसिम्हा राव सरकार को समर्थन देने के लिए वोट दिया था। इस मसले पर 1998 में 5 जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था। अब 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को पलट दिया है। यह मुद्दा दोबारा इसलिये उठा, कि झारखंड मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो शिबु सोरेन की बहू और विधायक सीता सोरेन ने अपने खिलाफ जारी आपराधिक कार्रवाई को रद्द करने की याचिका दाखिल की। उन पर आरोप था कि उन्होंने 2012 के झारखंड राज्यसभा चुनाव में एक खास प्रत्याशी को वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। सीता सोरेन ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि उन्हें सदन में ’कुछ भी कहने या वोट देने’ के लिए संविधान के अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट हासिल है।
सभी सात न्यायमूर्तियों ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि विशेषाधिकारों का सृजन सदनों की कार्यवाहियों को निरापद ढंग से चलाने के लिए किया गया था न कि आपराधिक गतिविधियों की अनदेखी करने के लिए। भ्रष्टाचार या रिश्वत एक अपराध है जिसे सदन के भीतर या बाहर एक दृष्टि से देखना होगा। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सांसदों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट कर देती है। हमारा मानना है कि संसदीय विशेषाधिकारों के तहत रिश्वतखोरी को संरक्षण हासिल नहीं है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ की पीठ ने इसी मुद्दे पर छायी धुंध को छांटने का काम किया है। इसके साथ ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने विशेषाधिकारों के मुद्दे को न्यायिक समीक्षा के घेरे में ले लिया है। भले ही संसद विशेषाधिकारों के मुद्दे पर विचार करने वाली सर्वोच्च संस्था है मगर इसके सदस्यों के सदन के भीतर किये गये कार्यों की समीक्षा अब से सर्वोच्च न्यायालय में भी हो सकती है। इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर एक बेहद महत्वपूर्ण फैसले के जरिए देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दिशा देने की कोशिश की है।
भ्रष्टाचार से निपटने के लिए संसद और विधानसभाएं ही अपने अधिकार क्षेत्र में कानून बनाती हैं मगर जब इनके सदस्य ही सदन के भीतर वोट देने या कोई वक्तव्य देने के लिए भ्रष्टाचार करते हैं तो उन्हें उनके ही बनाये गये कानूनों से छूट किस प्रकार मिल सकती है? गौर से देखा जाये तो सांसदों को 1998 में सदन के भीतर रिश्वत लेकर वोट देने के मामले में जिस तरह भ्रष्टाचार निरोधक कानून से छूट दी गई थी वह संसदीय एवं न्यायिक रूप से गलत था। तब मामला यह था कि 1996 में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव की जो कांग्रेस सरकार गठित हुई थी उसे लोकसभा के भीतर पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं था। सदन में लाये गये विश्वास मत का सामना करने के लिए उसे दूसरे दलों के सदस्यों की जरूरत थी। बहुमत जुटाने के लिए तब झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत रूप में खासा धन दिया गया। यह मामला अदालत में गया और तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव अपराधी बनाये गये। निचली अदालत में उन पर आरोप पत्र दाखिल हो गया और उन्हें अपनी जमानत करानी पड़ी। इस अदालत से उन्हें सजा भी हुई। यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो तब के विद्वान न्यायाधीशों ने इसे संसद के भीतर का मामला बता कर विशेषाधिकारों का हिस्सा बता दिया। इससे संसदीय विशेषाधिकारों का गलत इस्तेमाल होने लगा। चुने हुए प्रतिनिधि इन अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करते हुए संसदीय परम्परा एवं व्यवस्था को धुंधलाने एवं दागी बनाने लगे। इस एवं ऐसे राजनीति एवं संसदीय परम्परा से जुडे़ अनेक मुद्दें पर स्वस्थ बहस हो, इसके लिए जरूरी है कि इन्हें संकीर्ण नजरिये से न देखा जाए। सवाल यह है कि अगर पैसे का या तोहफों का लेनदेन रिश्वत है तो फिर मंत्री पद या चुनावी टिकट या किसी और चीज के प्रलोभन में दलबदल या क्रॉस वोटिंग करना और कराना क्या है? इन विवादित विषयां पर भी स्पष्ट नीति एवं कानून बनाने जरूरी है। जाहिर है, इन कठिन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। लेकिन अगर राजनीति को स्वच्छ बनाना है तो इन सवालों के उत्तर तो तलाशने ही होंगे।
दरअसल संसद या विधानसभाओं की कार्यवाहियों को सुचारू व भयमुक्त चलाने व निर्वाचित सदस्यों को जनता की समस्याओं को बिना भय या प्रलोभन के रखने के लिए ही विशेषाधिकरों का गठन किया गया था। उसे किसी भी सूरत में रिश्वत लेने की आड़ के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसा किया गया तो सांसदों और विधायकों की एक ऐसी बिरादरी बन जाएगी, जो कानून के ऊपर मानी जाने लगेगी। अब सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि लोकतन्त्र को स्वस्थ, गतिशील व जवाबदेह बनाये रखने के लिए भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जैसे मामले विशेषाधिकार की श्रेणी में नहीं रहेंगे। सांसद हो या आम लोग-दोनों के लिये कानून एक समान ही लागू होना एक आदर्श स्थिति है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया है। कुल मिलाकर देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला न सिर्फ देश की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली में गहरे तक पेठ गये भ्रष्टाचार को दूर करता है बल्कि इंसाफ करने की प्रक्रिया में जनप्रतिनिधियों एवं आम जनता के अलग-अलग कानूनी अधिकारों को समाप्त कर समान न्याय को स्थापित करने की दिशा में एक नये सूर्य का उदय करता है। प्रेषकः-
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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