उन जनसंहारों से जुड़ी हुई दहशत और नफ़रत अभी मिट नहीं पाई है. लेकिन वैसा जघन्य जाति-युद्ध फिर शुरू होने जैसा कोई स्पष्ट लक्षण भी अभी नहीं दिखता.हालांकि बिहार की राजनीति में जातीयता का ज़हर बेअसर नहीं हुआ है, इसलिए दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि ख़तरा सदा के लिए टल गया है.
हाँ, इतना ज़रूर हुआ है कि चाहे ‘लाल सेना’ हो या ‘रणवीर सेना’, दोनों पक्षों से जुड़े समाज ने मार-काट का भारी नुकसान झेलते रहने से मना कर दिया है.
यह तभी संभव हुआ, जब वर्ग या जाति केन्द्रित हिंसा-प्रतिहिंसा वाले हथियारबंद दस्तों के बीच शक्ति संतुलन जैसी स्थिति बन गई.
हिंसा का इतिहास
नक्सली हमलों से बचने या नक्सलियों से मुक़ाबला करने के लिए भूमिहार समाज के लोगों ने वर्ष 1994 में भोजपुर ज़िले के बेलाउर गाँव में एक बैठक की थी.
उसी बैठक में ‘रणवीर सेना’ नाम से एक सशस्त्र संगठन बनाने का निर्णय हुआ था. उसका नेतृत्व ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह ‘मुखिया’ को सौंपा गया था .
फिर तो पूरे मध्य बिहार में जातीय हिंसा-प्रतिहिंसा का भयावह दौर शुरू हो गया. राज्य सरकार ने रणवीर सेना को प्रतिबंधित कर दिया, फिर भी अगले पांच वर्षों तक मार-काट जारी रही.
वर्ष 1997 के दिसंबर माह की पहली तारीख़ को अरवल ज़िले के लक्ष्मणपुर बाथे गाँव में रणवीर सेना ने दलित और पिछड़ी जातियों के 58 लोगों की हत्या कर दी.
बिहार के इस सबसे बड़े और सबसे क्रूर जनसंहार के मृतकों में औरतों और बच्चों की तादाद ज़्यादा थी.
इस हत्या कांड में निचली अदालत ने 16 अभियुक्तों को मृत्यदंड और 10 अभियुक्तों को उम्रक़ैद की सज़ा दी है. इस सज़ा के ख़िलाफ़ की गई अपील हाई कोर्ट में लंबित है और आठ अभियुक्तों को हाई कोर्ट से ज़मानत मिल चुकी है.
सोन नदी के किनारे बसे लक्ष्मणपुर बाथे गाँव में पंद्रह साल पहले हुए जनसंहार के पीड़ित परिवारों से मिलने बाथे पहुंचा.
भोजपुर के सहार अंचल की तरफ़ से वहाँ पहुँचने के लिए मुझे सोन नदी को नाव से, और उसके विस्तृत रेतीले कछार को पैदल पार करना पड़ा.
अत्याचार और दहशत
मेरी पहली मुलाक़ात 30 वर्षीय विनोद पासवान से हुई. बाथे नरसंहार में इनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या हो गई थी और ये अपने परिवार में अकेले ज़िंदा बचे थे. बातचीत शुरू हुई तो उनका रोष ज़ाहिर होने लगा.
उन्होंने कहा, ”हमारे साथ अभी भी अत्याचार हो रहा है. ठीक है कि सरकार ने मुआवजा दिया. लेकिन बदमाश लोग तो धमकी दे ही रहा है कि गोली मार देंगे, बच्चों का अपहरण कर लेंगे. सरकार के यहाँ आवेदन देकर कितनी बार गुहार लगा चुका हूँ, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है. मुझे धमकी इसलिए दी जा रही है क्योंकि मैं ही इस जनसंहार के मामले का सूचक हूँ. इसलिए मामला ख़त्म करवाने के लिए मुझ पर ज़्यादा दबाव डाला जा रहा है.”
घटना के समय झोपड़ियों में रहने वाले पीड़ित परिवारों ने मुआवज़े की रक़म से पक्के मकान ज़रूर बना लिए हैं, लेकिन असुरक्षा की चिंता उन्हें लगातार सता रही है.
विनोद कहने लगे, ”उनके पास बड़े-बड़े हथियार हैं. गरीब गुरबा के पास अगर है भी तो भाला- बरछा है. हम खाली झंडा लेके चलेंगे तो मारे ही जायेंगे. हम लोग नक्सली तो नहीं थे कि मुक़ाबला करते. रणवीर सेना वालों ने कभी नक्सलियों को कहां मारा? क्या नक्सली उससे मरायेगा? वो तो जो गरीब- गुरबा झोपड़ी में सोये हुए थे, उन्हीं को ठाय- ठाय उड़ा दिया. बताइए कि यहाँ जो दो महीने के, साल भर के बच्चों को, या औरतों को मार दिया, क्या यही मर्दानगी थी ?”
बाथे के इस कत्लेआम में अपनी पत्नी, बहू और बेटी को गंवा चुके लछमन राजवंशी की पीड़ा इस तरह फूटी, ”अभी भी देता है धमकी कि फिर 58 को मारेंगे. कहता है कि बड़की खराँव में सब रिहा हो गया, यहाँ भी हो जायेगा. आप प्रेस वाले नीतीश जी को कह दीजियेगा कि वो हम सभी पिछड़ों को बोरा में बांधकर गंगा में फेंकवा दें.”
इस गाँव पर जब रणवीर सेना का हमला हुआ था, तब राज्य की सत्ता चला रहे लालू प्रसाद यादव से लेकर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक यहाँ आये थे.
महीनों तक नेताओं और मीडिया कर्मियों का ताँता लगा हुआ था. अब इन ग्रामीणों की शिकायत है कि बुलाने पर भी पुलिस नहीं आती, लेकिन धमकाने वाले अभियुक्त आ धमकते हैं.
प्रतिशोध की चिंगारी
महेश कुमार 21 साल का युवक है. जब हमला हुआ था तो वह छह साल का था. पाँव में गोली लगी थी लेकिन तीन महीने तक इलाज़ कराने के बाद बच गया.
अब उसके भीतर कुछ सुलगता रहता है, ”बिना गलती के कोई किसी को मार देगा तो क्या गुस्सा नहीं आएगा? गुस्सा तो इतना आता है कि क्या कहें. चैन से रात को सोते नहीं है. दहशत के मारे रात में उठ- उठ कर देखते रहते हैं कि कहीं फिर तो नहीं आ गया सब.”
मनोज कुमार अब 16 साल का है. जब इस घटना में घायल हुआ था, तब सिर्फ एक साल का था.
बदले की आग में कसमसाते मन की बात छिपा नहीं पाता है, ”सोचते हैं तो बहुत कुछ. जी करता है कि उसने जो किया, हम भी उसके साथ वही करें. उसको सैकड़ों हथियार है तो क्या हुआ, बदला तो किसी भी तरह से लिया जा सकता है.”
इन बातों को सुनकर यही लग रहा था कि पता नहीं यह ज़ख्म यहाँ कितनी पीढ़ियों तक हरा रहेगा !
(इस श्रृंखला के भाग- 2 में पढ़े बथानी टोला जनसंहार से जुड़े हालात की चर्चा)