देश एक, नाम अलग, पर खेलते हैं जमकर होली

holi-plays-outside-of-indiaनई दिल्ली। भारत, नेपाल व मॉरिशस समेत दुनिया के कई देशों में रंगों का त्योहार होली बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। हिंदुओं का यह त्योहार फागुन महीने के अंत और चैत्र मास के शुरुआत में मनाया जाता है। रंगों का यह त्योहार हर उम्र के लोगों के बीच जमकर खेला जाता है। भारत में लगभग हर राज्यों में खेले जाने वाला यह त्योहार अलग-अलग नामों से जाना जाता है। आइए जानते हैं कि होली देश में किन-किन नामों से खेली जाती है।

फगुआ: बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में होली का त्योहार बहुत उत्साह से मनाया जाता है और इसे यहां पर फगुआ के नाम से पुकारा जाता है। इस दिन होलिका दहन के बाद से ही होली खेली जाती है। पुरुष व महिला के अलावा बच्चे अपनी-अपनी टोली बनाकर दोपहर तक होली खेलते हैं। फिर शाम को लोग अपने-अपने परिचितों के पास मिलने पहुंचते हैं और एक-दूसरे को अबीर या गुलाल लगाते हैं। होली के लिए घरों में कई दिन पहले से ही लजीज पकवान बनने शुरू हो जाते हैं। गुझिया इस त्योहार का सबसे लोकप्रिय व्यंजन है। पुणे में होली को फाल्गुन पूर्णिमा के नाम से जानते हैं।

दुलंडी: हरियाणा में होली को दुलंडी के नाम से जाना जाता है। यह त्योहार यूं तो हर किसी के लिए खास होता है लेकिन भाभी और देवर के लिए यह दिन कुछ ज्यादा ही मनोरंजक होता है। इस दिन भाभी की खूब चलती है और वह अपने पति के छोटे भाई यानी देवर को अपना निशाना बनाती है और मजाकिया अंदाज में जमकर धुनाई करती है। जबकि शाम को देवर अपनी भाभी को खुश करने के लिए गिफ्ट के रूप में मिठाई लाता है। यह दिन भाभी-देवर के रिश्ते को और मजबूती प्रदान करता है। इसके अलावा हरियाणा में कई जगह मटकी भी फोड़ी जाती है। मटकी फोड़ने के लिए लोग एक पिरामिड बनाते हैं और मिट्टी से बने घड़े को जिसमें दही व मक्खन रखा होता है को तोड़ते हैं। फिर प्रसाद स्वरूप इसे सभी में बांटते हैं।

रंग पंचमी: महाराष्ट्र में होली आमतौर पर रंग पंचमी के नाम से मनाई जाती है। इसे शिमगो या शिमगा के भी नाम से जाना जाता है। यह त्योहार होली के पांच दिन बाद मनाया जाता है जो मछली पकड़ने वाले लोगों [मछुआरों] के बीच खासा लोकप्रिय है। इस त्योहार में रंगों के अलावा लोग जमकर नाच, गाना और आमोद-प्रमोद करते हैं। महाराष्ट्र के अलावा मध्य प्रदेश में भी यह खासा हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

बसंत उत्सव: देश के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल में इस त्योहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है लेकिन वहां पर इसे बसंत उत्सव के नाम से जाना जाता है। बसंत उत्सव की परंपरा महान कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रविंद्र नाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय की स्थापना के दौरान की थी। इससे पूर्व लड़के-लड़कियां वसंत ऋतु का स्वागत गर्मजोशी से करते हैं। इस दौरान वे न सिर्फ रंग से बल्कि नाच, गाने के साथ नई ऋतु का स्वागत करते हैं।

ढोल पूर्णिमा: पश्चिम बंगाल में होली को एक अन्य नाम ढोल पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस दिन छात्र केसरिया रंग के कपड़े पहने होते हैं साथ ही सुगंधित फूलों से बनी माला भी धारण किए होते हैं। ये लोग दर्शकों के सामने वाद्य यंत्रों के साथ मनमोहक कार्यक्रम पेश कर उनका मन मोह लेते हैं। इस त्योहार को ढोल जतरा के नाम से भी जाना जाता है। कुछ जगहों पर शहर के मुख्य चौराहे पर भगवान कृष्ण व राधा की मूर्ति रखकर होली खेली जाती है। इस दौरान पुरुष रंगीन पानी और अबीर को एक-दूसरे पर फेंकते हैं।

लठमार होली: सर्वाधिक लोकप्रिय होलियों में से एक है लठमार होली। यह होली मथुरा के बरसाने में खेली जाती है जिसमें महिलाएं इस दिन पुरुषों को लाठियों से मारती हैं। हालांकि इस हिंसा में भी एक तरह से मनोविनोद होता है। बरसाना भगवान कृष्ण की प्रेमिका राधा की जन्मस्थली है। कृष्ण राधा और गोपियों संग यहीं पर रासलीला खेलते थे। ऐसी मान्यता है कि इस होली को निहारने के लिए तैंतीस कोटि देवता भी बरसाना आते हैं। इसकी शुरुआत के बारे में माना जाता है कि करीब पांच सौ साल पहले ब्रज उद्धारक व रासलीलानुकरण के आविष्कारक श्रील नारायण भट्ट ने लठामार होली शुरू कराई थी। मुगलकाल में हिंदू महिलाओं की लाज की रक्षा एक यक्ष प्रश्न था। नारायण भट्ट ने हिंदू नारियों को अबला से सबला बनाने के लिए इस लीला के माध्यम से महिलाओं को आत्म रक्षा के लिए तैयार किया था। लठमार होली का सबसे पहले उल्लेख नारायण भट्ट रचित ‘भक्ति प्रदीप’ व ‘भक्तिरस तरंगिणी’ पुस्तकों में मिलता है।

होला मोहल्ला: पंजाब में हर्षोल्लास के इस त्योहार को होला मोहल्ला के नाम से मनाया जाता है। होली के दिन आनंदपुर साहिब में मनाए जाने वाला यह एक वार्षिक त्योहार है। सिखों में आपसी सद्भाव बनाए रखने के लिए सिखों के 10वें गुरु गोविंद सिंह ने इस परंपरा की शुरुआत की थी। तीन दिनों तक इस त्योहार को मनाया जाता है। इस दिन आनंदपुर साहिब आने वाले श्रद्धालुओं के लिए लंगर की भी व्यवस्था की जाती है।

शिमगो: होली को गोवा में शिमगो के नाम से जाना जाता है। होली को स्थानीय कोंकणी भाषा में शिमगो कहा जाता है। यहां पर लोग रंगों के साथ जमकर खेलते हैं और वसंत का स्वागत करते हैं। इस दौरान गोवा के लोग चावल, स्पाइसी चिकन या मटन करी जिसे शागोटी कहा जाता है बनाते हैं साथ ही मिठाई भी बनाते हैं। यहां पर भी कुछ जगह लोग रंगपंचमी के नाम से जानते हैं।

कामन पंडिगई: तमिलनाडु में लोग होली को कामदेव के बलिदान के रूप में याद करते हुए मनाते हैं। यहां पर होली को तीन अन्य नामों कमान पंडिगई, कामाविलास और कामा-दाहानाम के नाम से भी जानते हैं। भगवान शिव और कामदेव पर तमिलनाडु के लोगों की अगाध श्रद्धा है। अनुश्रुतियों के अनुसार सती देव की आत्महत्या के बाद शिव बहुत दुखी हो गए थे और गहरी साधना में चले गए। शिव के क्रोध से हर कोई वाकिफ था इसलिए कोई भी उनकी साधना से उन्हें रोक नहीं सका। इस बीच पर्वत की पुत्री पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या शुरू कर दी। शिव अपने पुराने रूप में प्रेम के देवता कामदेव के प्रयास से आ सके। अन्य देवगणों के अनुरोध पर शिव का ध्यान भंग करने और उन्हें पुराने रूप में लाने की चुनौती कामदेव ने स्वीकार कर ली। कामदेव ने जब गहरे ध्यान में व्यस्त शिव का ध्यान तोड़ने की कोशिश की तो इससे नाराज शिव ने अपनी तीसरी आंख खोल दी जिससे कामदेव वहीं पर जल कर नष्ट हो गए। लेकिन इससे पूर्व शिव को कामदेव का प्रेमरूपी वाण लग चुका था जिससे उनका मन बदल गया और पार्वती से विवाह करने को राजी हो गए। तमिलनाडु में होली के दिन जो गाने गाए जाते हैं उसमें कामदेव की पत्नी रती के गहरे दुख और जलने के दौरान गहरी पीड़ा से कराहते कामदेव का वर्णन जरूर रहता है। लोगों में ऐसी मान्यता है कि कामदेव होली के दिन पुन: अवतरित होते हैं इसलिए उनके नाम पर होली मनाई जाती है।

बनारस की होली: बनारस में एकादशी तिथि के दिन से ही अबीर-गुलाल हवा में लहराने लगते है। बनारस की होली में युवकों की टोलियां फाग के गीत गाती, ढोल, नगाडों की थाप पर नाचती नजर आती है। यहां की होली की परंपरा के अनुसार बारात निकाली जाती है। जिसमें दुल्हा रथ पर सवार होकर आता है, बारात के आगमन पर दुल्हे का परंपरागत ढंग से स्वागत किया जाता है, मंडप सजाया जाता है, सजी धजी दुल्हन आती है। मंडप में दुल्हा दुल्हन की बहस होने के साथ बारात को बिना दुल्हन के ही लौटना पड़ता है। इस प्रकार यहां एक अलग तरीके से होली मनाई जाती है। काशी के घाटों पर भंग के साथ चढ़े होली रंगों की छठा देखते ही बनती है।

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