महान समाज सुधारक, चिंतक, दार्शनिक और विद्वान राजा राममनोहर राय

(22 मई, 1772 –27 सितंबर, 1833)

डा. जे.के.गर्ग
22 मई 2018 को भारत के महान समाज सुधारक, चिंतक, दार्शनिक और विद्वान राजा राम मोहन राय की 246वीं जयंती है। राजा राममनोहर को ‘आधुनिक भारतीय समाज का निर्माता’ कहा जाता है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, देश के अंदर सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन के प्रणेता थे। उन्होंने ब्रिटिश शासकों के सामने मुगल सम्राट का पक्ष सफलतापूर्वक रखा था जिससे खुश होकर मुगल शासक ने उनको राजा की उपाधि दी थी। राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 ई. को राधानगर नाम के बंगाल के एक गांव में बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रमाकांत राय था। राममनोहर राय ने अपने जीवन में अरबी, फारसी, अंग्रेजी, ग्रीक, हिब्रू आदि भाषाओं का अध्ययन किया था। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सूफी धर्म का भी उन्होंने गंभीर अध्ययन किया था। 17 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध शुरू कर दिया था। वह अंग्रेजी भाषा और सभ्यता से काफी प्रभावित थे। उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की।

जब वह मुश्किल से 15 वर्ष के थे, तब उन्होंने बंगाल में पुस्तक लिखकर मूर्तिपूजा का खंडन किया था। राममोहन को इसके लिए बहुत कष्ट उठाने पड़े। उन्हें कट्टरवादी परिवार से निकाल दिया गया और उन्हें देश निकाले के रूप में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा। लेकिन उन्होंने इन कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी और उल्टे इन परिस्थितियों का लाभ उठाया। उन्होंने दूर दूर तक यात्राएं की और इस प्रकार बहुत सा ज्ञान और अनुभव हासिल किया।

हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 20 अगस्त, 1828 में उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ नामक एक नए प्रकार के समाज की स्थापना की। यह पहला भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन माना जाता था। यह वह दौर था, जब भारतीय समाज में ‘सती प्रथा’ जोरों पर थी। 1829 में इसके उन्मूलन का श्रेय राजा राममोहन राय को ही जाता है।

​हिन्दू कॉलेज की स्थापना में योगदान ——कई भाषाओं के ज्ञाता राजा राम मोहन राय भारतीय शिक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव के समर्थक थे। उनका मानना था कि भारत की प्रगति केवल उदार शिक्षा के द्वारा होगी, जिसमें पश्चिमी विद्या तथा ज्ञान की सभी शाखाओं की शिक्षण व्यवस्था हो। उन्होंने ऐसे लोगों का पूरा समर्थन किया, जिन्होंने अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी विज्ञान के अध्ययन का भारत में आरंभ किया और वह अपने प्रयासों में सफल भी हुए। इसी विचारों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदू कॉलेज की स्थापना में बड़ा योगदान दिया जो उन दिनों की सर्वाधिक आधुनिक संस्था थी।

राजा राममोहन राय एक धार्मिक सुधारक तथा सत्य के अन्वेषक थे। सभी धर्मों के अध्ययन से वह इस परिणाम पर पंहुचे कि सभी धर्मों में अद्वैतवाद संबंधित सिद्धांतों का प्रचलन है। मुसलमान उन्हें मुसलमान समझते थे, ईसाई उन्हें ईसाई समझते थे, अद्वैतवादी उन्हें अद्वैतवाती मानते थे तथा हिन्दू उन्हें वेदान्ती स्वीकार करते थे। वह सब धर्मों की मौलिक सत्यता तथा एकता में विश्वास करते थे। राजा राम मोहन राय ने तत्कालीन भारतीय समाज की कट्टरता, रूढ़िवादिता और अंध विश्वासों को दूर करके उसे आधुनिक बनाने का प्रयास किया।

अप्रैल 1822 ई. में राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में एक साप्ताहिक अखबार ‘मिरात-उल-अखबार’ नाम से शुरू किया, जो भारत में पहला फारसी अखबार था। साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को राजा राममोहन राय के धार्मिक विचार और इंग्लैंड की आयरलैंड विरोधी नीति की आलोचना पसंद नहीं आई। सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अध्यादेश जारी किया, जिसके विरोध में राजा राममोहन राय ने ‘मिरात-उल-अखबार’ का प्रकाशन बंद कर दिया। राजा राममोहन राय ने समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए भी कड़ा संघर्ष किया था। उनके आन्दोलन का ही नतीजा था कि 1835 ई. में समाचार पत्रों की आजादी का रास्ता खुला राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी |

सती प्रथा के प्रबल विरोधी ———

राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए काफी कोशिश की। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ लगातार आंदोलन चलाया। यह आंदोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। इसका विरोध इतना अधिक था कि एक अवसर पर तो उनका जीवन ही खतरे में था। वह अपने शत्रुओं के हमले से कभी नहीं घबराए। उनके प्रयास का ही नतीजा था कि लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बंद करवाने में समर्थ हुए। जब कट्टर लोगों ने इंग्लैंड में ‘प्रिवी काउंसिल’ में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने भी अपने प्रगतिशील मित्रों और साथी कार्यकर्ताओं की ओर से ब्रिटिश संसद के सम्मुख अपना विरोधी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्हें प्रसन्नता हुई जब ‘प्रिवी काउंसिल’ ने ‘सती प्रथा’ के समर्थकों के प्रार्थना पत्र को अस्वीकृत कर दिया।

सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गए। राजा राम मोहन राय किसी काम से विदेश गए थे और इसी बीच उनके भाई की मौत हो गई। उनके भाई की मौत के बाद सती प्रथा के नाम पर उनकी भाभी को जिंदा जला दिया गया। इस घटना से वह काफी आहत हुए और ठान लिया कि जैसा उनकी भाभी के साथ हुआ, वैसा अब किसी और महिला के साथ नहीं होने देंगे।

1831 में एक खास काम के लिए दिल्ली के मुगल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए वह इंग्लैंड गए। इस यात्रा के बीच में हे मेनिंजाइटिस (दिमागी बुखार) हो जाने के कारण उनका 27 सितंबर, 1833 को निधन हो गया। ब्रिटेन के ब्रिस्टल नगर के आरनोस वेल कब्रिस्तान में राजा राममोहन राय की समाधि है।

संकलनकर्ता एवं प्रस्तुतिकरण—–डा.जे.के.गर्ग

सन्दर्भ—-विभिन्न पत्र पत्रिकायें, नवभारत टाइम्स ,मेरी डायरी के पन्ने आदि

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